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________________ wwwwwwwwwwwwwwww ८४६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय तिनके जू तीर परें सोहत सुभग घोरै चढ़ता जू नांहि सोरे ट्रॅक असमांनी है। धूरको पहार एहमांनौं गिरमें रनसौं ताहिक जू सीस पर षीमज भवानी हैं ||१८|| अचल सोभ दर्षे अबर जू सत र आगम के भेद अर्षे जे कीरत सरजू जू । साष जस कीरत जू बावन ही वीर साध आंनत मिठाई वेग टाल दुष दूर जू ।। कीरत करमचन्द पण्डित जू गोवर्द्धन सीस भए राज मांनी साधु गुन पूर जू । दोनू सीस दोय पंच जू अनोपचन्द राम ही गोपाल भ्रात वाधे नित नूर जू ॥६६॥ ब्रह्मा के वंशमांहि बडे रिष भारद्वाज ताहू के प्रवर तीन माधन की साष है । पढे हैं जजूरवेद तिनके जू गोत पुनि राघव से भट भए वेद मुष आंष है ।। तास सुत नरबद जू सिवकी जू बांचहू तें रहें जाय काशीमें पढ़ें गुन लाष है।। गोविंद सुत चलो जू जोसी जगरूप सुत हरदत्त हीर वीर जोतष को ऑष है ॥२००।। गन बांन ससि नाग ससि संवत १८१५ श्रावन जू सेत पष बीज सनीवार है। मघा वरीयांन जोग बालव करन मांहि सूरज उदै काल घर ही अठार है ।। पत्र पल उपर जू ताहि ससे लग्न अली कुर्कट संक्रान्त गत रुद्र पुनि वार है। पूरन प्रमान कीयौ पंडित जू देष दीयौ मौरत को कौस एक मौरत अपार है ।।२०१॥ दोहा सेतांबर पंचाइणे जोए सगलै जोस । वीरचंद रै वासत कीयौ मौरत कोस ।। २०२।। -इति श्री भाषा मोहरत कोस कवि पंचायण कृत समाप्त. विजयकीर्ति - इस नाम के दिगम्बर जैन-परम्परा में अनेक विद्वान् हुए हैं. उदाहरणार्थ एक तो 'सरस्वती कल्प' के प्रणेता मलयकीत्ति के गुरु. इनका अनुमित समय १४ वीं शताब्दी में है.' 'शृंगारार्णव चन्द्रिका' के रचयिता विजय वर्णी के गुरु जिनका समय संदिग्ध है. तीसरे राजस्थान के ही सुप्रसिद्ध कवि कामराज द्वारा 'जयकुमार आख्यान' में स्मृत. इस प्रकार और भी विद्वानों का पता 'जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) से प्रकाशित 'प्रशस्ति संग्रह' से चलता है. परन्तु यहाँ जिन विजयकत्ति का उल्लेख किया जा रहा है. वह सूचित सभी विद्वानों से भिन्न हैं. इनका संबन्ध स्वर्ण गिरि की भट्टारक परम्परा से रहा है. भट्टारक मुनीन्द्रभूषण के ये ब्रजलाल नामक शिष्य थे. स्वर्णगिरि का संबन्ध ग्वालियर की गद्दी से रहा है. दीक्षित होने पर ब्रजलाल विजयकीत्ति नाम से अभिहित किये गये. इनके वैयक्तिक जीवनपट को आलोकित करनेवाले प्रमाणभूत साधन अनुपलब्ध हैं. कवि ने भी अपनी रचनाओं में स्व-परिचय के प्रति उपेक्षा भाव ही रखा है. इनके शिष्य दयाचन्द और गोकल मुनि ने अपने गुरु की प्रशंसा में एक-एक गीत लिखा है जिससे केवल १. प्रशस्ति संग्रह, संपा० भुजवलीजी शास्त्री, प्रकाशक जैन सिद्धान्त भवन, आरा. २. स्वर्ण गिरि विषयक स्पष्टता अपेक्षित है कारण कि राजस्थान में जालोर का नाम भी वर्णगिरि रहा है, पर सचित स्थान मध्यप्रदेश में अवस्थित है. सोनागिरि के नाम से प्रसिद्ध है. यह सिद्धक्षेत्र है. नंग अनंगकुमारों का निर्वाण स्थान यही है. प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्य में इस क्षेत्र की महिमा गाई गई है, विजयकीर्ति के शिष्य पं० भागीरथ मिश्र ने इस तीर्थ की प्राकृतिक छवि और उसके धार्मिक महत्त्व को प्रकाशित करनेवाली 'सोनागिरि पच्च सी' का सं० १८ में प्रणयन किया था. एक समय यह बुदेलखंड का सर्वजनमान्य तीर्थ था. महाराजा छत्रशाल का भी यह श्रद्धाकेन्द्र रहा है. ३. गीत इस प्रकार है अथ जखडी लिप्यते श्रीजी सारद मात मनावरयां कांई लागू गणधर पाय सहेली माहारी हो । गुण गावु श्री गुरु तणां विजयकोत्ति रिखराय सहेली माहारी हो। आजि मेंह सद्गुरु वांदस्यां ।। Jain Education Intemational For private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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