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________________ wwwwwwwwwwww मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८४७ इतना ही पता चलता है कि ये मूलतः ग्वालियर मंडलान्तर्गत स्यौपुर के निवासी छावड़ा गोत्रीय सा० हेमराज के पुत्र थे. इनकी माता का नाम वेणी बाई था. गीतकार के कथनानुसार इनने विधिवत् लोचकर मुनि दीक्षा अंगीकार की थी. पांडे दयाचन्द ने प्रस्तुत स्तुति सं० १८२४ में रची। इस समय में विजयकीत्ति का यश:सूर्य मध्याह्न में था. अब तक इनने कई कृतियों का सृजन कर लिया था. २०० से अधिक स्फुट पद लिख चुके थे. कई शिष्यों के गुरुत्व के सौभाग्य से मण्डित हो गये थे. इनके एक शिष्य देवेन्द्रभूषण भी थे जिनके बनाये स्तवन मिलते हैं. कहीं-कहीं गुरुजी का भी स्वल्प उल्लेख कवि ने कर दिया है. दो सूचन महत्त्व के मालूम दिये. एक तो यह कि विजयकीत्तिजी ने सं० १८२१ में वडवाई के निकट बावनगजाजी की और मुक्तागिरि की यात्रा की थी, उस समय देवेन्द्रभूषण इनके साथ थे. दोनों तीर्थों के तात्कालिक वर्णन उस समय की स्थिति का सुन्दर चित्रण समुपस्थित करते हैं. इनके इतने विद्वान् शिष्यों के रहते हुए भी किसी ने सही जानकारी नहीं दी कि ये भट्टारक और बाद में मुनि कब बने ? और अजमेर की गद्दी पर कब आरूढ़ हुए ? इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में वृत्तरत्नाकर की एक हस्तलिखित प्रति है जो सं० १८१६ में विजयकीत्ति के शिष्य सदाराम द्वारा किशनगढ़ के समीप रूपनगर में प्रतिलिपित है, इसकी लेखनपुष्पिका से इतना तो तय है कि सं० १८१६ से पूर्व ग्वालियर से अजमेर पधार गये थे, और इनका धार्मिक शासन अजमेर प्रदेश में भली प्रकार जम चुका था. विजयकीत्ति अजमेर और नागौर से संबद्ध थे. ये परम सारस्वतोपासक रहे जान पड़ता है. परिणामस्वरूप जहां कहीं भी ये स्वयं या उनका शिष्य परिवार पहुंचता वहां ज्ञान भंडार की स्थापना अवश्य ही हो जाती थी. कारण कि शिष्य वर्ग भी सुलेखक और परिश्रमी था. अजमेर का जो दिगम्बर जैन भण्डार है, असंभव नहीं वह विजयकीति की सारस्वतोपासना का परिणाम हो, कारण कि अधिकतर प्रतियों का लेखन दयाराम, भागीरथ, सदाराम और गोकल मुनि द्वारा हुआ है जो सभी विजयकीर्ति के ही शिष्य थे. प्रशस्तियों में विजयकीति का भी उल्लेख प्रमुख ज्ञानागारों के संस्थापकों के रूप में किया है. रूपनगर, भिणाय, मसूदा और चित्तौड़ में ज्ञान-भण्डार स्थापित किये थे. अद्यावधि विजयकीत्ति प्रणीत इन कृतियों का पता लगा है श्रीजी स्यौपुर शोभतो साह हेमराज सुत सार | सहे. लोच करायो जुगत सुश्रीजी छावड़ा वंश वर्माण सहे० ।।२।। श्रीजी मंडल विध पूजा रची रहा हेमराज सुत सार । सहे. कर पहरावणी गुरु तणी फुनि देय भली जमणार सहे०||३|| कर वहण भगवंती को कई माल लई तिण वर सहे० । सां साहि मूलसंग शोभतो काई पूज्यां जिनअवतार सहे० ||४|| श्रीजी लाहण दीन्ही भावसं बाई वेणि कर अधकार सहे। छावडा कुल मैं अपनी कांई काला घरवर नारी सहे. ।।५।। श्रीजी संवत अठारासै चौबीसमें काई जेष्ठ वदि आठसार | सहे। पंडित दयाचन्द इम बीनवै कांई संघ सदा जयकार ।। सहे. ||६|| निज संग्रहस्थ गुटके से उद्धृत. ४. स्यौपुर एक समय जैन संस्कृति का और विशेषकर दिगम्बर-परम्परा का सुप्रसिद्ध केन्द्र था. वहाँ के निवासी रचिशील जैनों ने जैन साहित्य के निर्माण में उल्लेखनीय योग दिया है. यद्यपि वहाँ की साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक प्रगति का मूल्यांकन समुचित रूपेण नहीं हो पाया है, पर जो भी वहाँ की रचनाएं प्राप्त हुई है उनसे हिन्दी जैन साहित्य पर नूतन प्रकाश पड़ा है. ग्वालियरी भाषा का साहित्य अधिकतर यहाँ पर ही लिखा गया है. स्यौपुर के गोलापूरब राजनंद के पुत्र धनराज या धनदास ने सं० २६१४ में भक्तामरस्त्रोत का पद्यात्मक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया था और इसका चित्रण सं० १६१५ में करवाया गया था. जैन स्तोत्र साहित्य में सचित्र कृति यही एक मात्र मानी जाती है. इस कृति का जितना धार्मिक दृष्टि से महत्त्व है उससे भी कहीं तात्कालिक लोककला की दृष्टि से अनुपमेय है. MRID OF ANGO COM JainEduce ww.jamanorary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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