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________________ ८३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय इससे विदित होता है कि पुरुष वर्ग वल्लभकुलीन था और नारी समुदाय सलेमाबाद स्थित निम्बार्क गद्दी का उपासक था, वैष्णव शाखा में यह परम्परा रही है कि पुरुष और नारियों का गुरु-घराना एक नहीं हो सकता. महाराजा बिड़दसिंहजी-(राज्य काल सं० १८३८-१८४५) इनके स्फुट पद्यों के अतिरिक्त गीतगोविंद की गद्य-पद्यात्मक टीका पाई जाती है. ३०० पत्रों की विशद् हिन्दी टीका के देखने से पता चलता है कि शायद ही कोई इतनी विशद वृत्ति हो. इनके निर्माण में महाराजा ने तत्काल में वहाँ निवास करनेवाले बिहार प्रदेश के सुप्रसिद्ध विज्ञ और विवेचनकार श्री हरिचरणदास से प्रर्याप्त सहायता ली है. एक रघुनाथ भट्ट का नाम भी आता है जो संभवतः 'गोविंद लीलामृत' के प्रणेता हों ?. विड़दसिंह के समय में भी विद्वान् और कवि समाहत होते थे. एक और वृन्द के वंशजों का सांस्कृतिक दृष्टि से किशनगढ़ में प्रभुत्व था तो दूसरी ओर बाहिर के विद्वान् भी आकर वहां निवास करने में अपने को गौरवान्वित समझते थे. चाहे राजनैतिक उत्पात कितने ही आये हों पर साहित्यिक सरिता के प्रवाह में शैथिल्य नहीं आया. खेद की बात इतनी ही है कि वहाँ के अन्य कविओं पर अन्वेषण नहीं हो पाया है. यदि वहाँ का राजकीय सरस्वती भण्डार विशिष्ट दृष्टि से टटोला जाय तो संभव है वहाँ की सांस्कृतिक चेतना के दर्शन हो सकेंगे. कल्याणसिंहजी-(राज्य काल सं० १८५४-६५) महामहोपाध्याय श्री विश्वेश्वरनाथ जी रेऊ रचित 'मारवाड़ के इतिहास' में प्रदत्त इनके काल में और मुन्शी देवीप्रसादजी कृत में 'राज रसनामृत' में सूचित समय में वैषम्य है, पर उस पर विचार का यह स्थान नहीं. कल्याणसिंहजी के स्फुट पद मिले हैं. एक उद्धृत किया जा रहा है राग वसंत, ताल धमार रति पति दे दुख करि रतिपति सौं तू तो मेरी प्यारी और प्यारे हू की प्यारी उठि चलि गजगति सौ दूती के वचन सुनि-सुनि मुसक्यानी भूषन वसन सौंधौं लियो बहो भांति सौं कल्याण के प्रभु गिरधरन धरक धाय लई अति उर सौं महाराजा पृथ्वीसिंहजी-(राज्यकाल सं० १८९७-१९३६) ये फतहगढ़ की शाखा से गोद आये थे. इनका केवल एक ही पद प्राप्त है जिसमें वल्लभाचार्य की परम्परा का उल्लेख है. महाराजा का विशद् वर्णन प्राप्त नहीं है, पर अन्यान्य ऐतिहासिक सम सामयिक साधनों से सिद्ध है कि उस समय राज-परिवार में ज्ञान की चेतना उन्नति के शिखर पर थी. महाराज कुमारों को भी साहित्यिक शिक्षा दिलवाने का विशिष्ट प्रबंध था, तभी तो वह आगे चलकर स्वतंत्र ग्रंथकार प्रमाणित हुए. महाराजा पृथ्वीसिंह का एक पद इस प्रकार है : वंशावली श्रीमहाप्रभु वल्लभ प्रगट तिन सुत विठलनाथ । जिनके गिरधरजी प्रगट उनके गोपीनाथ । श्रीप्रभुजी जिनके भये विठ्ठलनाथ प्रमान । उन सुत वल्लभजी भये फिर श्री विठ्ठलनाथ । करि करुणा या करन महीं मोकू कियो सनाथ । जिनके सुत रणछोडजी हैं कुंवरन सिरमौर । इनको वंश वधो बहुत यह आशिष करू कर जोर । जवानसिंहजी—यह उपर्युक्त महाराजा पृथ्वीसिंहजी के द्वितीय पुत्र थे. इनका कविताकाल सं० १९४५-४६ लगभग है. ये परम कृष्ण भक्त राजवी थे. इनकी तीन रचनाएं-'रस तरंग' 'नखशिख-शिखनख' और 'जल्वये शहनशाह इश्क' VOJAN ARE GNATAARAMINATA LACE INNINANINNARENENIबारवNINNINNINE Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jamendrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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