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________________ मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ३७ माघ मासके सुकल पष तिथ पंचमि बुधवार । संपूरन यह ग्रंथ किय सुन्दरकुवरि विचार ॥८३।। सार संग्रह का रचनाकाल भी सूचित शोध प्रबन्ध में सं० १८४५ बताया गया है जब कि स्व० भालेरावजी की प्रति स० १८४७ सूचित किया है संवत सुभ षट त्रगुन से सैतालीस उपरत । प्रेम संपुट का निर्माण-काल भी डा० सावित्री सिन्हा ने सं० १८४८ माना है जब कि वस्तुतः इसका स्रजन समय सं० १८४५ है. संवत अठारह सै जु है पैंतालीसा जानू । साकै सत्रहसै रु दस सिद्धारथ सुप्रमान ॥५४।। महा मास वैसाष सुद पूर्नवासि तिथ जास । वार मंगलिय भौंममो पूरन ग्रंथ प्रकास ।।५५॥ छत्रकु वरि बाई-ये सुप्रसिद्ध संतप्रवर श्री नागरीदासकी पौत्री और सरदारसिंहजी की पुत्री थीं. किशनगढ़ राजपरिवार की कृष्णकीतिगायिका कन्याओं में इनका स्थान भी प्रमुख है. प्रेमविनोद इनकी सुन्दर काव्य-कृति है. डा. सावित्री सिन्हा ने इन पर भी आलोचनात्मक प्रकाश डाला है, परन्तु प्रमादवश संवतों में ऐसी भ्रान्तियाँ घर कर गई हैं जिनका संशोधन आवश्यक है, वर्ना भ्रामक परम्परा आगे फैल सकती है. बात यह है कि उक्त शोध प्रबन्ध पृ० १६८ पर इनका परिचय देते हुए सूचित किया है'छत्रकुवरि बाई नागरोदासजी के पुत्र सरदारसिंह की पुत्री थीं. इनका विवाह सं० १७३१ में कांठडे के गोपालसिंह जी खीची से हुआ था. विवाह में इनकी आयु लगभग सोलह वर्ष की तो अवश्य रही ही होगी, अत: इनका जन्म सं० १७१५ के लगभग माना जा सकता है ..... -मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियाँ पृ० १६८ उपर्युक्त पंक्तियों में जो संवत् प्रयुक्त हुए हैं, सर्वथा असत्य हैं. कारण इनका जन्म सं०१७१५ में कैसे माना जा सकता है. उन दिनों तो महाराजा राजसिंह का भी जन्म नहीं हुआ था जो नागरीदासजी के पिता थे. राजसिंह के सं० १८०५ में स्वर्गवासी हो जाने पर तो राजपरिवार में सत्ता के लिए महान् संघर्ष छिड़ गया था, सरदारसिंह का राज्यत्वकाल सं० १८१२ से सं० १८२३ तक का रहा है. १७२५ और १७३१ में राजसिंह के पूर्ववर्ती महाराजा मानसिंह का का शासन था. संवतों की यह भूल विदुषी लेखिका से न जाने कैसे हो गई है. सच बात तो यह जान पड़ती है कि १८ के स्थान पर सर्वत्र १७ अंक लिख दिया है. थोड़ी सी असावधानी से कितनी बड़ी भ्रान्ति फैल जाती है. इसी भूल के परिणाम स्वरूप ही शोध-प्रबन्ध में छत्रकुंवरि रचित 'प्रेम विनोद' का रचना समय भी १७४५ दे दिया है जब कि होना चाहिए था सं० १८४५, जैसा कि कवयित्री स्वयं स्वीकार करती है संवत है नव दन सै पैंतालीस वढंत । साकै सत्रह सै रु दस सिद्धारथ सु कहंत ॥ मास असाढ सुकुल पष तीज बृहस्पतवार । संपूरन यह वारता कीनी मन अनुसार ।। इन पंवितयों के ऊपर का भाग शोधप्रबन्ध में उद्धृत किया गया है, यदि लेखिका स्वल्प ध्यान देतीं तो यह भ्रमपूर्ण बातें लिखने का अवसर न आता. यहाँ पर एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक जान पड़ता है कि यों तो किशनगढ़ का राज-परिवार वल्लभकुलीन रहा है पर महारानियों द्वारा रचित कृतियों में सर्वत्र मंगलाचरण में निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम आते रहे हैं. Palam AWARDOया TOPINIATTAimum I ndianhitraTRTS SOMDIDI HALININATA N DARI HASMITATUS Jain Educa
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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