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________________ मुनि श्रीमिश्रीमल 'मधुकर' : जीवन-वृत्त : २६ कपड़े पहन कर सन्त होने वाले अनेक मिल जाते हैं। उन अनेकों में से कुछ ही ऐसे होते हैं जिनका सोचना और बोलना निसर्गतः सन्ताचार के अनुकूल हो. EAKXCENERATARRRRRR सन्त सब का होता है ! वह सन्त सबका निश्चय ही नहीं है, जिसकी वाणी में सम्प्रदायवाद के कांटे हों. R वन्दनीय महावीर ने करुणा-भीगी पलकों से दरिद्र ब्राह्मण को देखा था. उन्होंने अपना उत्तरीय उतार कर उसके स्कंध पर अपने हाथों स्वयं रख दिया था. वस्त्र प्रदान कर उनके साधनामूलक मन को परम मोदानुभूति हुई थी. इस कार्य से उनकी निस्पृह और नित्तिमूलक साधना में तनिक भी अन्तर नहीं आया था. इससे उनकी पवित्र आत्मसाधना उर्जस्वल हो उठी थी ! | जिस सन्त के रेशे-रेशे में, पुष्प में सुगंध, दुग्ध में धवलिमा और अग्नि में ऊष्मा समाई रहती है-ऐसे ही सब के प्रति करुणा न हो वह गुणग्राही संतों रूपी हंसों की पांत में बगुला है. जिस धनार्जन में श्रम के मोती न चमकते हों वह धन एक दिन दुराचार के अन्धकार में धकेल देगा. प्रामाणिकतापूर्वक अजित द्रव्य सदाचार की ओर बढ़ने को उत्प्रेरित करता है. मुझे मनुष्य की नैतिकता में अखण्ड आस्था है. जहाँ विश्वासों की अमिट छाया है वहीं साया मिलता है. साया और छाया संकल्पविजयी के लिये अलग-अलग नहीं हैं ! व्यक्ति की सहज सरलता और नैतिकता में हमारा विश्वास होना चाहिये. कोई भी मनुष्य अनैतिक नहीं बनना चाहता है. परावलम्बन की कठिनाई का ताप, मनुष्य को खेदखिन्न बना कर पश्चात्ताप की भट्ठी में झुलसा देता है ! परावलम्बी जीवन, स्वतंत्रता का सुख नहीं भोग सकता ! कृत्रिमता, छल और बल के बाणों से आत्मा लहूलुहान हो जाती है. इन बाणों से आहत आत्मा में सत्य की पूजा प्रतिष्ठा और सम्मान कहाँ ? जहाँ आत्मा सम्मानित नहीं, वहाँ सत्य प्रतिबिम्बित नहीं, सत्य प्रतिबिम्बित नहीं तो सरलता नहीं, सरलता नहीं तो निर्मलता कहाँ ? सरलता-निर्मलता नहीं, वहाँ आत्मार्पण नहीं. आत्मार्पण नहीं तो धर्म का प्रतिबिम्ब कहाँ ? प्रतिबिम्ब नहीं तो मन के दाग कैसे दिखें ? दाग दिखेंगे नहीं, तो मिटाये कैसे जायेंगे? दाग नहीं मिटेंगे तो मन में चमक कहाँ ? चमक नहीं तो उसमें आत्मगुण की छाया कैसे पड़े ? आत्मगुणों की छाया न दीखने से ही उसे आत्मा में पवित्रता नजर नहीं आ पाती. सरल, सुगम और सुबोध भाषा, हृदय की भाषा है. अलंकार के आवरण में लिपटी भाषा श्रोता के हृदय-देश में नहीं पहुँचती; वह इससे उबुद्ध भी नहीं होता. अपढ़ से अपढ़ श्रोता भी हृदय की भाषा समझ लेता है। उसके पास भी अनुभूतिशील हृदय है. एक गुफा में दो सिंह नहीं रह सकते. क्योंकि वे दूसरे के प्राणों का व्यपरोपण करते हैं. वे प्राणियों के खून को चूस कर जीवन-पोषण करते हैं. पर एक क्षेत्र में दो भिन्न सम्प्रदायों के साधु रह सकते हैं. क्योंकि साधु समभाव साधना का समता-रस पीकर आत्म-पोषण करते हैं. साधु अगर यशः कीर्ति के लिये लड़ते हैं तो इसका साफ-साफ अर्थ यह है कि उन्होंने सत्य के दर्शन नहीं किये. ऐसे सन्त लिबास के सन्त हैं, पर बढ़ रहे हैं, वे अहंकार की ओर ही. वे मर-मर कर जीते हैं प्रकाश का पथ समता, विश्वममता और धर्मदृढ़ता से मिलता है. RDA Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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