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________________ ४६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय ---- -------------- क्षपक की सल्लेखना में सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य आराधक जब सल्लेखना ले लेता है तो वह उसमें बड़े आदर, प्रेम और श्रद्धा के साथ संलग्न रहता है तथा उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी के साथ आत्म-साधना में गति-शील रहता है. उसके इस पुण्य कार्य में, जिसे एक 'महान् यज्ञ' कहा गया है, पूर्ण सफलता मिले और वह अपने पवित्र पथ से विचलित न होने पाये, इसके लिए अनुभवी मुनि-निर्यापकाचार्य उसकी सल्लेखना में सम्पूर्ण शक्ति एवं आदर के साथ उसे सहायता करते हैं और समाधिमरण में सुस्थिर रखते हैं. वे उसे सदैव तत्त्वज्ञान-पूर्ण मधुर उपदेशों द्वारा शरीर और संसार की असारता एवं नश्वरता बतलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न हो. 'भगवती आराधना' (गा ६५०-६७६) में समाधिमरण कराने वालों का बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है : "क्षपक की सल्लेखना कराने वाले मुनियों को धर्मप्रिय, दृढ़श्रद्धानी, पापभीरु, परीषहजेता, देशकालज्ञाता, योग्यायोग्यविचारक, त्यागमार्गमर्मज्ञ, अनुभवी, स्व-पर-तत्त्वविवेकी, विश्वासी और परोपकारी होना चाहिए. उनकी संख्या उत्कृष्ट ४८ और कम-से-कम २ होना चाहिए।" "४८ मुनि क्षपक की इस प्रकार सेवा करें-४ मुनि क्षपक को उठाने बैठाने आदि रूप से शरीर की टहल करें. ४ मुनि धर्म श्रवण करायें. ४ मुनि भोजन और ४ मुनि पान करायें. ४ मुनि रक्षा-देखभाल करें. ४ मुनि शरीर के मल-मूत्रादि के क्षेपण में तत्पर रहें. ४ मुनि वसतिका के द्वार पर रहें, जिससे अनेक लोग क्षपक के परिणामों में क्षोभ न कर सकें. ४ मुनि क्षपक की अराधना को सुन कर आये लोगों को सभा में धर्मोपदेश द्वारा सन्तुष्ट करें. ४ मुनि रात्रि में जागें. ४ मुनि देश की ऊंच-नीच स्थिति के ज्ञान में तत्पर रहें. ४ मुनि बाहर से आये गये लोगों से बातचीत करें. और ४ मुनि क्षपक के समाधिमरण में विध्न करने की सम्भावना से आये लोगों से वाद (शास्त्रार्थ द्वारा धर्मप्रभावना) करें. ये महाप्रभावशाली निर्यापक मुनि क्षपक की समाधि में पूर्ण यत्न से सहायता करते हैं और उसे संसार से पार कराते हैं. भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल की विचित्रता होने से यथानुकूल अवसर में जितनी विधि बन जाये और जितने गुणों के धारक निर्यापक मिल जाएँ उतने भी समाधि करायें, अति श्रेष्ठ है. पर निर्यापक एक नहीं होना चाहिए, क्योंकि अकेला एक निर्यापक क्षपक की २४ घंटे सेवा करने पर थक जायेगा और क्षपक की अच्छी तरह समाधि नहीं करा पायेगा.' निर्यापक मुनि क्षपक को जो कल्याणकारी उपदेश देकर समाधिमरण में सुस्थिर रखते हैं उसका पंडित प्रवर आशाधर जी ने निम्न प्रकार वर्णन किया है.२ "हे क्षपक ! लोक में ऐसा कोई पुद्गल नहीं, जिसे तुमने एक से अधिक बार न भोगा हो, फिर भी वह तुम्हारा कोई हित न कर सका. पर-वस्तु क्या कभी आत्मा का हित कर सकती है ? आत्मा का हित तो ज्ञान, संयम और त्याग, ये आत्मगुण ही कर सकते हैं. अतः बाह्य वस्तुओं से मोह को त्यागो और विवेक तथा संयम का आश्रय लो और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हूँ और पुद्गल अन्य है, मैं चेतन हूँ, ज्ञाता-दृष्टा हूँ और पुद्गल अचेतन है, ज्ञानदर्शनरहित है. मैं आनन्द-धन हूँ और पुद्गल ऐसा नहीं है." १. पियधम्मा दढधम्मा संविग्गाऽवज्जभीरुणो धीरा । छ दण्हू पच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विदण्हू। कप्पाकप्पे कुशला समाधिकरणज्जुदा सुदरहस्सा । गीदत्था भयवन्तो अडदालीसं तु णिज्जक्या । णिज्जावया य दोगिण वि होति जहरणेण कालसंसयणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुते । -शिवार्य, भगवती आराधना. २. देखिए, आशाधर, सागारधर्मामृत, ८, ४८-१०७. Jain Education Interational - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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