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________________ दरबारीलाल जैन : जैनदर्शन में संलेखना का महत्वपूर्ण स्थान : ४६१ 'हे क्षपकराज ! जिस सल्लेखना को तुम अब तक धारण नहीं कर पाये थे, उसे धारण करने का सुअवसर तुम्हें आज प्राप्त हुआ है. उस सल्लेखना में कोई दोष मत आने दो. तुम परीषह या वेदना के कष्ट से मत घबराओ. वे तुम्हारे आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते. उन्हें तुम सहनशीलता एवं धीरता से सहन करो और उनके द्वारा कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा करो." "हे आराधक ! मिथ्यात्व का वमन करो, सम्यक्त्व का सेवन करो. पंचपरमेष्ठी का स्मरण करो और उनके गुणों में अनुराग करो तथा अपने शुद्ध ज्ञानोपयोग में लीन रहो. अपने महाव्रतों की रक्षा करो. कषायों को जीतो. इन्द्रियों को वश में करो. सदैव आत्मा में ही आत्मा का ध्यान करो. मिथ्यात्व के समान दुःखदायी और सम्यक्त्व के समान सुखदायी तीन लोक में अन्य कोई वस्तु नहीं है. देखो धनदत्त राजा का संघश्री मंत्री पहले सम्यग्दृष्टि था, पीछे उसने सम्यक्त्व की विराधना की और मिथ्यात्व का सेवन किया, जिसके कारण उसकी आँखें फूटी और संसार-चक्र में उसे घूमना पड़ा. राजा श्रेणिक तीव्र मिथ्यादृष्टि था, किन्तु बाद में सम्यग्दृष्टि बन गया, जिसके प्रभाव से अपनी बंधी हुई नरक स्थिति को कम करके उसने तीर्थकर प्रकृत्ति का बन्ध किया तथा भविष्यत्काल में वह तीर्थंकर होगा." "हे क्षपकराज ! तुमने आगम में अनेक बार सुना होगा कि पद्मरथ नाम का मिथिला का राजा "वासुपूज्याय नमः" कहता हुआ अनेक विघ्न-बाधाओं से पार हो गया था और भगवान् के समवसरण में पहुंचा था. वहाँ पहुँच कर उसने दीक्षा ले ली तथा भगवान् का शीघ्र गणधर बन गया था. यह अर्हन्तभक्ति का ही इतना बड़ा प्रताप था. सुभग नाम के ग्वाले ने 'नमो अरिहन्ताणं' इतना ही कहा था, जिसके प्रभाव से वह सुदर्शन हुआ और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ." "इसी तरह हे क्षपक ! जिन्होंने परिषहों को एवं उपसर्गों को सहन करके महाव्रतों का पालन किया उन्होंने अभ्युदय और मोक्ष प्राप्त किया. सुकुमाल को देखो, वे जब तप के लिये वन में गये और ध्यान में मग्न थे, तो शृगालिनी ने उन्हें कितनी निर्दयता से खाया, परन्तु सुकुमाल स्वामी जरा भी अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए और घोर उपसर्ग सहकर उत्तम गति को प्राप्त हुए. शिवभूति महामुनि को भी देखो, उनके सिर पर आंधी से उड़ कर घास का गांज आपड़ा था, परन्तु वे आत्म-ध्यान से तनिक भी नहीं डिगे और निश्चल वृत्ति से शरीर त्यागकर निर्वाण को प्राप्त हुए. पांचों पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे उस समय कौरवों के भानजे आदि ने पुरातन वैर निकालने के लिये गरम लोहे की सांकलों से बांधा और कीलें ठोंकी, किन्तु वे अडिग रहे और उपसर्ग सह कर उत्तम गति को प्राप्त हुए. युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन मोक्ष गये तथा नकुल और सहदेव सवार्थसिद्धि को प्राप्त हुए. विद्युच्चर ने कितना भारी उपसर्ग सहा और अन्त में सद्गति पाई." "अतः हे आराधक ! तुम्हें इन महापुरुषों को अपना आदर्श बना कर धीरता-वीरता से सब कष्टों को सहन करते हुए आत्मलीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि उत्तम प्रकार हो और अभ्युदय तथा निर्वाण प्राप्त करो. जो जीव एक बार भी अच्छी तरह समाधिमरण करके शरीर त्यागता है वह ७-८ भव से अधिक संसार में नहीं घूमता.' अतः हे क्षपक ! तुम्हें अपना यह दुर्लभ समाधिमरण पूर्ण धीरता-वीरता, सावधानी एवं विवेक के साथ करना चाहिए, जिससे तुम्हें संसार में फिर न घूमना पड़े." इस तरह निर्यापक मुनि क्षपक को समाधिमरण में निश्चल और सावधान बनाये रखते हैं. क्षपक के समाधिमरण रूप महान् यज्ञ की सफलता में इन महान् निर्यापक साधुओं का प्रमुख एवं अद्वितीय सहयोग होने से आगम में उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है:२-"वे महानुभाव (निर्यापक मुनि) धन्य हैं, जो सम्पूर्ण आदर और शक्ति के साथ क्षपक को सल्लेखना कराते हैं." १. शिवार्य भगवती आराधना. २. ते चिय महागुभावा घण्णा जेहिं च तस्स खवयस्स । सवादस्सत्तीए उवहिदाराधरणा सयला ।-शिवार्य, भ० प्रा० गाथा २०००. HTTEN Jain Ed
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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