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________________ 000200 दरबारलान जैन : जैनदर्शन में संलेखना का महत्त्वपूर्ण स्थान : ४५६ इसके पश्चात् वह जीवन में किये, कराये और अनुमोदित समस्त हिंसादि पापों की नियत भाव से आलोचना (वेद प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त महाव्रतों का अपने में आरोप करे. इसके साथ ही शोक, भय, खेद, ग्लानि (घृणा), कलुषता और आकुलता को भी छोड़ दे तथा बल एवं उत्साह को जागृत करके अमृतोपम शास्त्रवचनों द्वारा मन को प्रसन्न रखे. इस प्रकार कषाय को कृश करने के उपरान्त शरीर को कृश करने के लिये सल्लेखनाधारी सल्लेखना में सर्वप्रथम आहार ( भक्ष्य पदार्थों) का त्याग करे और दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों पर निर्भर रहे. इसके अनन्तर उन्हें भी छोड़ कर कांजी या गर्म जल पीने का अभ्यास करे. बाद में उन्हें भी त्याग कर शक्तिपूर्वक उपवास करे. इस प्रकार उपवास करते-करते एवं परमेष्ठी का ध्यान करते हुए पूर्ण जाग्रत एवं सावधानी में शरीर का उत्सर्ग करे.' यह सल्लेखना की विधि है. इस विधि से साधक ( आराधक ) अपने आनन्द - ज्ञान-धन आत्मा का साधन करता है और और भावी पर्याय को वर्तमान जीर्ण-शीर्ण नश्वर पर्याय से ज्यादा सुखी, शान्त, निर्विकार, नित्य, शाश्वत एवं उच्च बनाने का सफल पुरुषार्थ करता है. नश्वर से अनश्वर का लाभ हो तो उसे कौन विवेकी छोड़ने को तैयार होगा ? अतएव सल्लेखना धारक उन पांच दोषों से भी अपने को बचाता है, जो उसकी पवित्र सल्लेखना को दूषित करते हैं ये पांच दोष निम्न प्रकार हैं : सल्लेखना धारण करने के बाद जीवित बने रहने की आकांक्षा करना, शीघ्र मृत्यु की इच्छा करना, भयभीत होना, स्नेहियों का स्मरण करना और आगे की पर्याय में सुखों की चाह करना, ये पाँच दोष हैं, जिन्हें अतिचार कहा है और जिनसे सल्लेखना - धारक को बचना चाहिए. सल्लेखना का फल सल्लेखना- धारक धर्म का पूर्ण अनुभव और प्राप्ति करने के कारण नियम से निःश्रेयस् और अम्युदय प्राप्त करता है. स्वामी समन्तभद्र सल्लेखना का फल बतलाते हुए लिखते हैं कि "उत्तम सल्लेखना करने वाला धर्मरूपी अमृत को पान करने के कारण समस्त दुःखों से रहित होता हुआ निःश्रेयस् और अभ्युदय के अपरिमित सुखों को प्राप्त करता है.' 12 विद्वद्वर पं० आशाधरजी भी कहते हैं कि 'जिस महापुरुष ने संसारपरम्परा के नाशक समाधिमरण को धारण किया है उसने धर्म रूपी महान् निधि को परभव में जाने के लिये साथ ले लिया है. जिससे वह उसी तरह सुखी रहे जिस प्रकार एक ग्राम से दूसरे ग्राम को जाने वाला व्यक्ति पास में पर्याप्त पाथेय रखने पर निराकुल रहता है. इस जीव ने अनन्त बार मरण किया, किन्तु समाधि सहित पुण्यमरण कभी नहीं किया, जो सौभाग्य एवं पुण्योदय से अब प्राप्त हुआ है. सर्वज्ञदेव ने इस समाधि सहित पुण्यमरण की बड़ी प्रशंसा की है क्योंकि समाधिपूर्वक मरण करनेवाला महान् आत्मा निश्चय से संसार रूपी पिंजड़े को तोड़ देता है—उसे फिर संसार के बन्धन में नहीं रहना पड़ता है.' Jain Ducati ten १. जीवित - मरणाऽऽशंसे भय-मित्रस्मृति- निदाननामानः । सल्लेखना तिचाराः पंच जिनेन्द्रः समादिष्टाः २. निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निः पिबति पीतधर्मा सर्वैदुःखैरनालीढः ।२. सहगामि कृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः । समाधिमरण येन भवविध्वंसि साधितम् । प्राग्जन्तुनाऽमुनाऽनन्ताः प्राप्तास्तद्भवमृत्यवः । समाधियो न परं परमाश्चरमक्षणः | वरं शंसन्ति माहात्म्यं सर्वज्ञाश्चरमक्षणे | यस्मिन्समाहिता भव्या भञ्जन्ति भवपज्जरम् । - श्राशावर, सागारधर्मामृत ७-५८, ८- २७, २८. 0003 0000000 -समन्तभद्र, र० क० श्र० ५८. -समन्तभद्र, र०क० श्रा० ५-६. Private & Personal us2003 २००००० 00000000 jainerprary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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