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________________ ४५८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय सच बात तो यह है कि इन उल्लिखित चार संकटावस्थाओं में जो व्यक्ति को झकझोर देने तथा विचलित कर देनेवाली हैं-आत्मधर्म से च्युत न होना और हँसते-हँसते साम्यभावपूर्वक उसकी रक्षा के लिये अवश्य जाने वाले शरीर का उत्सर्ग कर देना साधारण पुरुषों का कार्य नहीं है. वह तो असाधारण व्यक्तियों तथा उनकी असाधारण साधना का फल है. अतः सल्लेखना एक असामान्य वस्तु है. हमें शरीर तथा आत्मा के मध्य देखना होगा कि कौन अस्थायी है और कौन स्थायी ? निश्चय ही शरीर अस्थायी है और आत्मा स्थायी. ऐसी स्थिति में अवश्य नाश होने वाले शरीर के लिये अभीष्ट फलदायी धर्म का नाश नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि शरीर के नाश हो जाने पर तो दूसरा शरीर पुनः मिल सकता है, किन्तु नष्ट धर्म का पुनः मिलना दुर्लभ है.' अतएव जो शरीर-मोही नहीं होते वे आत्मा और अनात्मा के अन्तर को ठीक तरह से समझते हैं तथा आत्मा से परमात्मा की ओर बढ़ते हैं. जैन सल्लेखना में यही तत्त्व निहित है. इसी से प्रत्येक जैन देवोपासना के अन्त में प्रतिदिन यह पवित्र भावना करता है.२ "हे जिनेन्द्र मेरे दुःख का नाश हो, दुःख के कारण कर्म का भी नाश हो और कर्मनाश के कारण समाधिमरण का लाभ हो तथा समाधिमरण के कारणभूत सम्यक्बोध की प्राप्ति हो. ये चारों वस्तुएँ हे देव ! हे जगद्वन्धु ! आपके चरणों की शरण से मुझे प्राप्त हों." जैन सल्लेखना का यही पवित्र उद्देश्य और प्रयोजन है, जो सांसारिक किसी कामना या वासना से सम्बद्ध नहीं है. सल्लेखना-धारक की संसार के किसी भोग या उपभोग व इन्द्रादि पद की प्राप्ति के लिये राग और अप्राप्ति के लिये द्वेष जैसी जघन्य इच्छाएँ नहीं होती. उसकी सिर्फ एक विदेह-मुक्ति की भावना रहती है, जिसके लिये ही उसने जीवनभर व्रत-तपादिपालन का घोर प्रयत्न किया है और अन्तिम समय में भी वह उस प्रयत्न से नहीं चूकना चाहता है. अतएव क्षपक को सल्लेखना में कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए और उसे लेने में किस प्रकार की विधि अपनाना चाहिए, इस सम्बन्ध में भी जैन शास्त्रों में विस्तृत और विशद विवेचन किया गया है. आचार्य समन्तभद्र ने निम्न प्रकार सल्लेखनाविधि बतलाई है.' सल्लेखना-धारक को सबसे पहले इष्ट वस्तुओं से राग, अनिष्ट वस्तुओं से द्वेष, स्त्रीपुत्रादि प्रिय जनों से ममत्व और धनादि में स्वामित्व की बुद्धि को छोड़ कर पवित्रमन होना चाहिए. उसके बाद अपने परिवार और अपने से संबन्धित व्यक्तियों से जीवन में हुए अपराधों को क्षमा कराये तथा स्वयं भी उन्हें प्रियवचन बोलकर क्षमा करे और इस तरह अपने अन्तःकरण को निष्कषाय बनाए. १. नावश्यं नाशिने हिंस्यो धो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्तवत्यन्तदुर्लभः ।।-आशाधर, सागारधर्मामृत-८-७. २. दुक्खक्खो कम्मक्खो समाहिमरणं च बोहिलाहो य । मम होउ जगतबंधव तव जिणवर ! चरणसरणेण । भारतीय ज्ञानपीठ, पूजाञ्जलि पृ० ८७. ३. स्नेहं बैरं सङ्ग परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः । आलोच्य सर्वमेनः कृत-कारितमनुमतं च निर्व्याजम् | आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थाथि निःशेषम् । शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाचं श्रुतैरमृतैः । आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्ध विबर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापपित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः । खर-पान-हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तर्नु त्यजेत्सर्वयत्नेन |-समन्तभद्र, रत्न क० श्रा०५, ३-७. AJJAREER Jain Luuto For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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