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________________ मुनि कान्तिसागर : लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २२७ “इति श्रीमदाचार्यजी श्री ६ केशवजी कृतानि काव्यानि ॥ लिपिकृतं पूज्यऋषि श्री सोमजी चच्छिष्य पु० ऋषि श्री: महिराजी ऋत्सिष्य पू० ऋषिश्रीटोडरजी तत्सिप्य पवित्रात्मा श्री ५ भीमजी तच्छिष्येण मुनि दामाख्येणालेखि | शुभं श्रेयः संवद्वसुगगनसमुद्रचन्द्रवर्षे (सं० १७०८) कार्तिकमासे त्रयोदशीगुरुवासरे राणपुरे लिपिकृत्वा प्रतिरियं शुभं श्रेयः॥ -राज० प्रा० ग्रन्थसूची भाग २ पृष्ठ ३०५, जोधपुर. ये गीत वस्तुत: केशवजी रचित हैं या क्या? विना मूल प्रति का अवलोकन किये कुछ भी कहना सम्भव नहीं. पुष्पिकान्तर्गत मुनियों की अन्य प्रतिलिपित रचनाएँ भी इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में सुरक्षित हैं. भीमजी दामाजी के गुरु थे, केशवजी शिष्य महीराज के प्रशिष्य और तेजमुनि के गुरु थे. तेजमुनि कृत "चंदराजा का रास" (र० का० सं० १७०७ कार्तिक, राणपुर) उपलब्ध है. एक हीरानन्द नामक कवि की रचनाएँ सं० १७७० पाई जाती हैं, पर निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता कि ये किस केशवजी के शिष्य थे ? कारण कि कंवरजी पक्ष में भी एक केशवजी का उल्लेख मिलता है, जो अपनी शाखा के १३ वें आचार्य थे. यहाँ पर प्रसंगतः विवक्षित १५ वें पट्टधर केशवजी के एक शिष्य कवि बाल कृत बावनी का परिचय देना इस लिये अनिवार्य है कि यह रचना सर्वथा अज्ञात और अन्यत्र अनुल्लिखित है. इसका रचनाकाल सं० १७१५ है अतः आचार्य श्री की विद्यमानता में ही प्रणीत है. रचना के प्रारंभिक भाग में संक्षेप में कवि ने आत्मीयों की परम्परा दी है. उसमें जसवंत ऋषि के शिष्य-पट्टधर प्रभावसंपन्न आचार्य रूपसिंहजी का नाम नहीं है, यह एक आश्चर्य है. यद्यपि उनके समय में ऐसी कोई अवांछनीय घटना भी नहीं घटी, फिर भी उनका नाम न होना खटकता है. जैन साहित्य में संख्यावाचक कृतियों का बाहुल्य रहा है. बल्कि कहना यह चाहिए कि एतद्विषयक परम्परा को जितना प्रोत्साहन और प्रेरणा जैन मुनियों ने दी है, शायद ही किसी ने कल्पना तक की हो. लोंकागच्छ के साहित्यकारों में इतः पूर्व बालचंद और किशन मुनि ने सफल प्रयास किया था जैसा कि ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट हो चुका है. उन्हीं के अनुकरण स्वरूप कवि बाल का यह सुप्रयत्न जान पड़ता है. इसकी भाषा हिन्दी और भाव आध्यात्मिक रस से ओतप्रोत हैं. जनता के दैनिक जीवन की शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है. इसका आदि और अन्त भाग इस प्रकार है । पद्य ५६ । कर्ता कवि बाल ।सं १७१५ आश्विन शुक्ला ५। ओंकार अनंत अलख अवगत अवनासी । अकपट अमिट अघट अप्रगट पद जोत प्रकासी ॥ नर सुरवर राजेन्द्र ांन चित अंतरै आवै । असरन सरन नाथ नाथ अन्य नाथ न भावै ॥ संसार पार तट पामीश्रो उत्तम जस जंपे अवर । देवाधिदेव भ्व सयमेव शिव सो सुप्रसन केशव सुगर ॥१॥ नमो साधु निकलंक मांन भीदा सूय भम्भल । नुन भीम गुरु नमो अनग मगो जिन अगल । जगमल सरखो जति नमो रूपा जीवा ऋषि । सिंघ वे जसवंतसीह नमो दामोदर दीपक दष्प ।। कर्मसीह नमो षोटे कलौ सुखदायक सुरतरु समौ । गछ तिलक गुज्जरगछै नर नायक केशव नमो ॥२॥ महियल धन मरुधरा उतनछ पइयापुर आषां । उस वंस अवतार सोहै चौरासी साषां ॥ कोठारी कासिप गोत्र गढपति गरथे । उचितापति अपीया हेम हय वर लष हथे ।। श्राचार सुर आगे लगै दातारा उपम देउ । प्रगटाया तीयारां पटतरे वीसलने तोगा देउ ॥३॥ सिरहर बलि संपनो तिये कुलमें कलपतरु । सुभ कर सुत नेतसी संघ सिकिरा वरस घर । नवरंगदे ता नाम प्रीया सत्य सील पीयारी । उयरे तेण उपनौ कुंयर केशव सुखकारी ।। सुपनरांक संसार सुख-सुवेले संजम लीयौ । कमसी सुगर केशव ने धंम गछपति थपीयो ॥४॥ अन्त कहै बाल सुगुरु केशव तणी बावन अक्षर बावनी ॥५शा सतरा सय संवत वरस पनरा वषाणु । हैला भास श्रासौज शुकल पंचम शुभ जाणु॥ Jain Edonarona Srary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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