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________________ KEENTERTAINMENMEHREERE २२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय १४ कर्मसिंह-ये महाराज दामोदरजी के बड़े भाई थे. जन्म सं० १६६६, दीक्षा सं० १६८८, पदस्थापन सं० १६६७ माह सुदि १३ (दामोदर जी के अनन्तर) स्वर्गवास सं० १६६८ माह सुदि ६ खंभात. दामोदरजी और कर्मसिंह के अस्तित्वकाल में जयतारण में धनराज मुनि ने इन दोनों के विरुद्ध होकर अपना स्वतन्त्र पक्ष स्थापित किया था जिसका उल्लेख कवि सतीचन्द और आचार्य श्रीतेजसिंहजी भी करते हैं. धनराज की शिष्यपरम्परा में कई-आसकरणजी' बर्द्धमानजी और कवि दीपो-दीपचन्द-आदि हुए हैं. इनकी रचनाएँ मेरे संग्रह में सुरक्षित हैं. ये सब सुन्दर और सुपाठ्य ग्रन्थों के प्रति-लेखक भी थे. कर्मसिंह का आचार्यत्व काल अत्यन्त मर्यादित रहा है अतः कवि तेजसिंह दोनों बंधुओं का परिचय एक ही पद्य में देकर संतुष्ट हो गये. वह समय, जैसा कि ऊपर बताया गया है, बड़ा संघर्ष का था. धनराज ने फिर आगे चल कर सूरत जाकर आपसी मेल-मिलाप भी कर लिया था जिसका विस्तृत वर्णन किसी लोकागच्छीय अज्ञात पट्टावाली के आधार पर स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने “सूर्यपर नो स्वर्णयुग" की विद्वत्तापूर्ण भूमिका में दिया है. १५ केशवजी-जयतारण निवासी ओसवाल पिता नेतसी माता नवरंगदे, जन्म सं० १६७५, दीक्षा नौ व्यक्तियों के साथ सं० १६८६ ज्येष्ठ सुदि ७, पद स्थापना काल सं० १६६८ माह सुदि ६, स्वर्गगमन सं० १७२० आषाढ़ कृष्णा ९ कोलदे में. सूरत के प्रमुख श्रावक वोहरा वीरजी को लिखकर गच्छभार संभलाया था. "लोंकागच्छीय बड़े पक्ष की पट्टावली" में इनका दीक्षास्थान कोलदे लिखा है और १५ दिन का संथारा पचखने का विवरण है. इनका गोत्र कोठारी था. केशवजी के समय में भी पर्याप्त साम्प्रदायिक संघर्ष रहा, उस समय की मीमांसा यहाँ न तो अभीष्ट है और न स्थान ही है, पर इतना कहना समुचित होगा कि लोंकागच्छ की समस्त शाखाओं के लिए यह काल बड़ा ही कठिन रहा. यहाँ तक कि राजस्थान और गुजरात के प्रान्तीय भेद और धार्मिक जीवनयापन-पद्धति जैसी वस्तु भी समीक्षा का विषय बन चुकी थी. मेरा तो मानना है कि एक प्रकार से यह युग उत्कर्ष का भी था, कारण कि आलोचना और विरोध में ही विकास के बीज होते हैं. जिस सम्प्रदाय का जितना अधिक विरोध होगा, वह उतना ही प्रगतिगामी बनेगा. आचार्य केशवजी की प्रशंसा में रवि मुनि ने जो गीत लिखे हैं वे आगे उद्धृत किये गये हैं. इन्हीं मुनि ने सं० १७८१ में भी दो भास आचार्यश्री के बालापुर के श्रीसंघ के आग्रह से लिखे थे, पर इस समय वे मेरे सम्सुख नहीं हैं, प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध न हो सके. अतः अन्त भाग देकर ही संतोष करना पड़ रहा है संवंत सतरशशि बसु समइ रे, रविमुनि कहइ उल्लास । बालापुर नी रे संघनी वीनतोह कीधी भास ।।८।। x श्रीबालापुर मन रंग तो रविमुनि भास बनाइ ॥१॥ इन रचनाओं से रविमुनि का समय स्वतः स्थिर हो जाता है. केशवजी भाषाकार के रूप में ख्याति अजित कर चुके हैं. इनने "दशाश्रुतस्कंध" और "दशवकालिक सूत्र" पर बालावबोध लिखे हैं. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के हस्तलिखित ग्रंथसंग्रह में एक प्रति है जिसमें कृत पद्यों का संकलन बताया जाता है. इसकी अंतिम पुष्पिका इस प्रकार है १. इनने संवत् १७०४ में उदयपुर चातुर्मास व्यतीत किया था. उस समय की 'संथारापयन्ना' बालावबोध की एक हस्तलिखित प्रति मेरे संग्रह में है जिसकी लेखनपुष्पिका इस प्रकार है"संवत १७०४ वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे षष्ट्यां तिथौ शुक्रवासरे ॥ उदैपुर मध्ये राणाश्रीजगत्सिंवजी राज्ये कंवर श्रीराजकुमार चिरं भूयात् || आचार्य श्री आसकरणजी विद्यमानेन || उदैपुरमध्ये चातुर्मासिक कारितं तेन लिपिकारापितं ||श्रा० देरंगा ।। "प्रति बहुत ही जीर्ण हैं". --SAIRAPE Jain Educ Bary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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