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________________ २२८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय ERERSEANINMNNNNAMK H शुभ महूरत सोमवार सुणत भणंत सुष करंता । गछपतिनां गुण माण मालहदि पहिरे दुष हरंता ॥ श्राचार्य केशव ईला अबल सुकवि बाल सद् गुरु वर्ण । ओंकार प्रादि बावन अक्षर सकल संघ मंगल कर्ण । १६. गणि तेजसिंह---पंचेटिया निवासी, ओसवाल छाजेड गोत्रीय, पिता लखमण माता लखमादे, दीक्षा सं० १७०६, (लोकागच्छ पट्टावली में इनका संयम-ग्रहण-स्थान जयपुर बताया गया है, पर वह गलत है कारण कि जयपुर की स्थापना ही सं० १७८४ में हुई है) पद स्थापना सं० १७२१ बैसाख सुदि ७ गुरुवार, स्वर्गगमन सं० १७५१ के बाद. यद्यपि देशाई महोदय ने इनका स्वर्गवास सं० १७४३ माना है पर इनकी रचनाओं से प्रमाणित है कि सं० १७५१ तक ये जीवित थे. गणिवर्य तेजसिंह को इतिहास के प्रति विशिष्ट अनुराग था. अपनी रचनाओं में भी वह रचनाकाल, स्थान और किस की अभ्यर्थना से किस कृति का स्रजन किया आदि बातों का उल्लेख करने में कम चूके हैं. इससे इनके जीवनपट पर भी सामान्य प्रकाश पड़ा है और फैली हुई भ्रान्तियों का परिमार्जन हुआ है. यद्यपि इनकी रचनाएं साहित्यिक दृष्टि से उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, पर सामान्य जैन श्रद्धालुओं को उनसे मार्गदर्शन मिलता है. आत्मशुद्धि और जीवनदर्शन के स्वर कर्णगोचर होते हैं. इनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और इतिहास की दृष्टि में विशिष्ट मूल्य रखने वाली कृति “गुरुगुणमाला भास" है जो इस निबंध की प्रेरक शक्ति रही है. इसकी प्राप्ति मुझे सं० १६६३ के मेरे सूरत चातुर्मास दरम्यान तत्रस्थ एक प्रभावशाली परिवार से हुई थी. साथ ही कई स्फुट रचनाएं, जिनका संबंध स्थानकवासी परम्परा से रहा था, उपलब्ध हुईं. दूसरी प्रति सं० १७७१ के स्थानकवासी परम्परा के मुनियों द्वारा प्रतिलिपित गुटके में प्राप्त हुई. इन्हीं के आधार पर स्व० मोहनलाल दलीचंद देशाई ने अपने जैन गुर्जर कविओ में लोंकागच्छ की पट्टावली दी है. कवि ने पूर्वजों से सुनकर पूर्वाचार्यों का इतिवृत्त लिपिबद्ध कर जैन इतिहास की एक काल विशेष से संबद्ध घटनावली को सुरक्षित रखा. यद्यपि इसमें आये उल्लेखों को तात्कालिक अन्यान्य ऐतिहासिक साधनों के प्रकाश में विश्लेषण करने पर कुछ तथ्य संदिग्ध प्रतीत हुए, पर इससे कृति का महत्त्व कम नहीं होता और न गणिवर्य के प्रयास पर ही आंच आती है. रूपसिंह से लगाकर १६ वें पाट तक का व्यवस्थित वर्णन एक स्थान पर प्राप्त होना अन्यत्र दुर्लभ ही है. इस रचना के अतिरिक्त भी "२७ पाट स्वाध्याय" नामक एक और रचना सं० १७३४ में रची थी, पर मुझे इसका केवल अंतिम पत्र ही प्राप्त हो सका है पाट सतावीस ए कह्या रे जिनशासन के मुणिंद । अधिक प्रत्यय मुंहता तणो नथमल सुत रे भागचंद हीरचंद कि । संवत सतर चोतीस में रे गणिगुण गाया चौमास । वीनती हीराचंद नी सही रतनपुरी सदा सुखवास ॥ इनकी गुर्जर गिरा में परिगुम्फित रचनाओं का परिचय जैन गुर्जर कविओ में आ चुका है, तदनन्तर कतिपय नव्य कृतियां मेरे संग्रह में इस प्रकार उपलब्ध हैं--- १ हरिवंशोत्पत्ति रास, २ सुविधि जिन साधना, ३ सोलह स्वप्न सज्झाय (सं० १७३३ आश्विन कृष्णा १४ ऋषि दामाजी शिष्य मनोहर द्वारा प्रतिलिपित) ४ स्वाध्याय, ५ प्रतिक्रमण स्वाध्याय, तमाखू स्वाध्याय आदि. इनकी रचनाओं से पता चलता है कि इनका विहार प्रदेश बहुत ही विस्तृत था, मेवाड़, मारवाड, मालवा और गुजरात के प्रमुख नगरों का उल्लेख स्वकृतियों में किया है. संस्कृत भाषा में रचित इनका एक 'दृष्टान्त शतक' नामक ग्रंथ भी उपलब्ध है-जिसकी अन्त्य प्रशस्ति इस प्रकार है"संवत १७६८ वर्षे कार्तिक सुदि १४ दिने वार मंगले. सं० १८४० कार्तिक वदि ३०. श्रीलंकाख्यगणे गणीश्वरगुरुः श्रीकेशवान्ते स्थितः शिष्येणाशु कृतं वरं निजधिया दृष्टान्तकानां शतम् =&RA Jain EduRE C w.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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