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________________ 率未講講課講談器器蒸業茶茶张諾器器驻张梁 मुनि कान्तिसागर : लोंकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २२५ श्राश्वास १७ विश्वास १८ शिवानि १६शको २०, लब्धि २१ विशुद्धया २२ यतने २३ च पता २४ । बुद्धि २५ स्मृधि २६ विरति २७ समाधि : २८ स्त्राणं २६ शुचिः ३० संयम ३१ संवरौ च ३२ ॥ १४ ॥ गति ३३ सुगुप्ति ३४ द्वयसाय ३५ यज्ञौ ३६, द्वीप ३७ श्चदीप : ३८ शरणं ३६ त्वहिंसा ४० । निर्वाण ४१ शोले ४२ बिमलप्रभासा ४३, स्थितिः ४४ : शुभांगा ४५ यजनं ४६ च रक्षा ४७ ॥ १५ ॥ अनाश्रयो ४८ निवृत्ति ४६ रप्रमादो ५० धुति ५१ श्चतृप्ति १२ यतनं च पजा १४ । ऋद्वि ५५ श्चवृद्धि ५६ : करुणो ५७ छयो ५८ च क्षति ५६ श्चबोधि ६. स्वपिमंगलं च ६१ ॥ १६ ॥ कृपा ६२ चतुक्रोश ६ घृणा ६४ नुकंपा ६५ ॥ अन्त भागग्रास नामग्रास १ श्चपिंड २ कबलो गडोल : ४ श्रादि नामआदि १ श्चपूर्व २ प्रथमा ३ दिमानि ॥२५॥ इतिश्रीलु कागच्छतिलकतुल्य श्रीपूज्यवरसिंहपट्टभूषण श्रीयशस्विगणि शिष्य रूपकृत नाममालायां विस्तरः प्रवाद : सम्पूर्णः ॥छ। इनमें १२५ श्लोकों में कवि ने लोकप्रचलित नामों का समावेश कर दिया है. ऐसा प्रतीत होता है कि अपने साधुओं के ज्ञानवद्ध नार्थ ही इसकी सृष्टि हुई है. रचना सुन्दर है और इसका प्रकाशन वांछनीय है. इसके अतिरिक्त स्फुट स्तवन भी प्राप्त हैं जिनकी संख्या एक दर्जन लगभग है. रूपऋषि के सम्प्रदाय के मुनि रामदास ने सं० १६६३ ज्येष्ठ कृष्णा १३ सारंगपुर (मालवा) में "पुण्यपाल रास" निर्मित किया. इस कृति की अंतिम प्रशस्ति में अपने पूर्वाचार्यों की विस्तृत नामावली दी है. कवि चतुर भी इसी परम्परा के हैं जिनकी रचना "चंदनमलयागिरि रास" (र० का० सं० १७७१) प्राप्त है. अनुसंधान करने पर अन्य कवि भी उपलब्ध हो सकते हैं. १३ दामोदरजी- अजयमेरु-अजमेर निवासी, लोढा गोत्रीय, पिता रतनसिंह-रतनशाह माता रत्नादे, जन्म सं० १६७२ दीक्षा सं० १६८९ ज्येष्ठ शुक्ला ७, पदस्थापन सं० १६६७ आषाढ कृष्णा ६, स्वर्गगमन सं० १६६७ माह सुदी १३. सतीचंद नामक किसी मुनि ने इनका छंद लिखा है. कवि ने प्रारम्भ में लोकाशाह द्वारा सं० १५२८ में पुस्तक-वांचना की चर्चा कर सं० १५३१ में "लोंकागच्छ" की स्थापना बताई है. दामोदरजी अजमेर निवासी होने के कारण कवि ने वहाँ के प्रसिद्ध स्थानों का वर्णन किया है. जब छन्द ही उद्धृत किया जा रहा है तब वर्णन का पिष्टपेषण व्यर्थ है. इसमें ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इनकी दीक्षा किशनगढ़ में हुई थी और छन्दकार ने दीक्षातिथि ज्येष्ठ सुदि ५ सूचित की है जब अन्यत्र ७ का उल्लेख है. आचार्य पद भी इन्हें किशनगढ़ में ही मिला जिसमें वहाँ के वेणीदास आदि श्रावकों ने विशेष भाग लिया. कवि ने अपना समयसूचक कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, पर “साहिजिहां तणी जिहां राई" शब्दों से पता चलता है कि यह रचना उनके समय में अर्थात् सं० १६८४-१७१५ के मध्य भाग में हुई होगी. और विचार करने पर पता लगता है कि इसमें दामोदरजी के आचार्य पद की चर्चा भी है और उनका आचार्यत्वकाल अत्यन्त सीमित रहा है. अतः इन बातों से अनुमान तो यही होता है कि निश्चित रूप से इनका रचनाकाल लगभग सं० १६६७ ही होना चाहिए. छन्द पर भाषा की दृष्टि से डिंगल का प्रभाव परिलक्षित होता है. कविता सारगर्भित और भावों से ओतप्रोत है. दामोदरजी के शिष्य खेता की दो रचनाएँ धन्नारास (र० का० सं० १७३२ वैराट, मेवाड) और अनाथी मुनि की ढाले (र० का० सं० १७४५) उपलब्ध हैं. Jain Education inte wimireofary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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