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________________ WWMMENAMMARNAMANNNNE ११२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय लगाकर कहा-अहो देवानुप्रिये ! हमें इस प्रकार के शब्द कानों से सुनना भी नहीं कल्पता है. फिर ऐसा मार्ग दिखाना तो रहा ही कहाँ ? इससे यह सिद्ध होता है कि साध्वीजी के मुंह पर मुखवस्त्रिका बँधी हुई थी, क्योंकि उनके दोनों हाथ तो दोनों कानों को बंद करने के लिये उन पर लगे हुए थे और खुले मुह वे बोल नहीं सकती थी. ऐसी स्थिति में बोलने से उनके मुख पर मुखवस्त्रिका बंधी होनी चाहिए. (२) निरयावलिया सूत्र में लिखा है कि जैनधर्म से निकले सोमिल ब्राह्मण ने काष्ठ की मुहपत्ती मुंह पर बांधी, किन्तु संन्यास धर्म में कहीं भी काष्ठ-पट्टी बांधने का विधान नहीं है. इससे सिद्ध होता है उस समय जैनधर्म में मुंहपत्ती मुंह पर बांधी जाती थी जिसकी नकल सोमिल ने काष्ठपट्टी बांधकर की. (३) भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देशा ३३ में जमालि के दीक्षाधिकार में उल्लेख है "सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तिए मुंह बंधइ" गृहस्थ नाई से संबंधित इस पाठ से भी यही सिद्ध होता है कि उस समय आठ पड़त वाली मुखवस्त्रिका मुख पर बांधी जाती थी. यह भी सिद्ध होता है कि व्यावहारिक कार्य में भी आठ पड़त की मुहपत्ती चाहिये तो वायुकायिक जीवों की विराधना से बचने के लिए तो इसका होना अनिवार्य ही है. आगमसाहित्य का गहन अध्ययन करने पर और भी अनेकों प्रमाण मुखवस्त्रिका बांधने के मिल सकते हैं. (४) आगमेतर साहित्य में(क) शिवपुराण ज्ञानसंहिता में जैन मुनि के लक्षण बताते हुए कहते हैं हस्ते पात्र दधानाश्च, तुडे वस्त्रस्य धारकाः, मलिनान्येव वासांसि, धारयन्त्यल्पभाषिणः । हाथ में काष्ठ पात्र वाले, मुंह पर धारण की हुई मुखवस्त्रिका वाले, मलीन वस्त्र वाले और अल्पभाषी को ही जनमुनि कहा है तथा आगे चलकर यह भी बताया है कि ऐसे (मुखवस्त्रिका मुह पर बांधने वाले) जैन मुनि ऋषभावतार के समय भी थे. उस समय भी आज की ही भांति सब यही समझते थे कि मुखवस्त्रिका बाँधने की परम्परा भगवान् ऋषभदेव के समय से ही चली आरही है. (ख) श्रीमालपुराण अध्याय ७-३३ में भी मुह पर मुहपत्ती धारण करने वाले को ही जैनमुनि कहा है. (ग) इनके अतिरिक्त आचारदिनकर, भुवनभानुकेवली चरित्र, हरिबल मच्छी नो रास, अवतारचरित्र, सम्यक्त्वमूल वारा व्रत नी टीप, हितशिक्षा नो रास, ओघनियुक्ति, जैनकथारत्नकोष, समुत्थान सूत्र, मुहपत्तिचर्चासार आदि अनेकानेक ग्रंथ ऐसे हैं, जिनके लेखक स्थानकवासी नहीं होते हुए भी उनमें मुखवस्त्रिका बांधने के प्रमाण प्राप्त होते हैं. (५) मुखवस्त्रिका स्थानकवासी जैन साधु का परिचय-चिह्न है. संसार के सभी प्रकार के साधुओं के अलग-अलग चिह्न हैं. कोई लम्बा कोई आड़ा तिलक, कोई त्रिशूलधारी तो कोई मयूरपंखधारी, कोई भगवाँ कपड़े वाले तो कोई लाल कपड़े वाले होते हैं. मुखवस्त्रिका देखते ही स्थानकवासी जैन मुनि की पहचान हो सकती है. इस प्रकार हमने देखा कि स्थानकवासी परम्परा की मुखवस्त्रिका धारण करने की विशेषता ओगमसम्मत, युक्तियुक्त एवं वैज्ञानिक है. अब स्थानकवासी परम्परा की अहिंसा-साधना या आचार-परिपालन की ओर दृष्टिपात करलें(३) प्राचार-पालन-स्थानकवासी परम्पराका आचार-पालन-अहिंसा-साधना सारे विश्व में अनुपम, वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक है. साधु त्रिकरण त्रियोग से हिंसा के सर्वथा त्यागी होते हैं, स्थावर काय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी प्राणी की न तो स्वयं हिंसा करते हैं, न करवाते हैं, न ही करने वालों को अच्छा ही समझते हैं और न ही वे ऐसा उपदेश देते हैं जिससे किसी भी हिंसामय (सावद्य) कार्य को प्रोत्साहन मिले. इसी अहिंसा-साधना के लिए वे आगमोक्त मुखस्त्रिका धारण ACT TIMIT BABA P Jain Education International HAMARI For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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