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________________ ENNERMERIKANXXX22KANNA लालचन्द्र नाहटा 'तरुण' : स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएँ : १६३ करते हैं और रजोहरण रखते हैं. आगमों में साधुओं के लिए जिन आचारों का निर्देश किया गया है, स्थानकवासी जैन मुनि प्रायः सभी का पालन करते हैं. विहार के समय उनके सामान को ढोने के लिए कोई आदमी साथ नहीं होता, अतः स्वभावत: वे कम से कम उपकरण रखते हैं. साथ में कोई भक्त नहीं चलते जो उनके लिए आहार-पानी की व्यवस्था करें. अतएव उन्हें मार्ग की कठिनाइयों का भारी सामना करना पड़ता है. दो-दो मास तक सर्वथा निराहार रहने की कठोर-तम तपस्या इसी समाज के साधु और श्रावक करते हैं. समग्र विश्व में धार्मिक तपस्याओं के इतने बड़े-बड़े रिकार्ड खोजने पर भी नहीं मिल सकते. पर्यो, त्योहारों और विशेष अवसरों पर इस परम्परा में नृत्य गाजे बाजे आदि का आयोजन नहीं किया जाता, न ही किसी प्रकार का आडम्बर किया जाता है. तप-त्याग, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय आदि सात्विक कार्य ही किये जाते हैं. इस समाज के सभी साधु साध्वी पाद-विहारी, त्यागी, तपस्वी, क्रोध, मान, माया एवं परिग्रह के सर्वथा त्यागी, प्रबल विरागी, अल्प एवं मृदु भाषी, संसार को आत्म-कल्याण का पथ-प्रदर्शन करने वाले, धर्म के प्रेरणास्रोत, सत्य के पुजारी, ज्ञान के देवता होते हैं. इनके उपदेश निवृत्ति-साधना से अनुप्राणित और वैराग्यरंग से अनुरंजित तो होते ही हैं, किन्तु संसार में सुख, शान्ति और समृद्धि की वृद्धि में सहायक एवं पारस्परिक विद्वेष, कटुता, घृणा, प्रतिस्पर्धा एवं ईर्ष्या-द्वेष की समाप्ति के लिए अमोघ अस्त्र रूप भी होते हैं. इनके प्रवचन-श्रवण से मन की दुष्प्रवृत्तियाँ शांत हो जाती हैं. विकारों, भ्रान्त-धारणाओं, शंकाओं, कुंठाओं और अन्तर्द्वन्द्वों के ज्वार समाप्त होकर मन और आत्मा शान्त एवं निर्मल बन जाती है. स्थानकवासी समाज की साहित्यिक मान्यता कुसुमादपि कोमल और वज्रादपि कठोर है. इसे संसार का सभी सत्साहित्य मान्य है, चाहे वह किसी भी देश के किसी भी धर्म के किसी भी विद्वान् द्वारा लिखा गया हो. इसके साथ ही वज्र के समान एक कठोर शर्त भी जुड़ी हुई है कि वह आत्म-कल्याण और आत्म-विकास में बाधक न हो. अर्थात् आगम-विरुद्ध न हो. इस कोमलता और दृढ़ता के फलस्वरूप ही यह अपने (जैन धर्म के) मौलिक स्वरूप को सुरक्षित रख सका है. भीषणतम झंझावातों, भयंकर तूफानों, घोरतम भूकम्पों के दुस्सह दुनिवार झटकों के बीच भी आज यह समाज अडोल अकम्प खड़ा है. वातावरण में पनपने वाली विकृतियों से बहुत कुछ अछूता रहा है. सनातन और चिरन्तन सत्य का प्रतीक, आधुनिकतम विज्ञान की अभिनव उपलब्धियों से परिपुष्ट, आत्म-विकास का सबलतम मार्ग-प्रदर्शक यह अत्यन्त प्रगतिशील सम्प्रदाय है. Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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