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________________ लालचन्द्र नाहटा 'तरुण' : स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएँ : १११ 歡常常接著就業職業辦聯準港開業就需 बौद्ध ग्रंथों में जैन सिद्धान्तों के उल्लेख एवं आलोचना दोनों ही मिलते हैं किन्तु कहीं भी जैनधर्म में मूर्तिपूजा की चर्चा नहीं है. इससे भी उस समय में जैनधर्म में मूर्तिपूजा का न होना सिद्ध होता है. भगवान् महावीर के विहार के एवं उनके ठहरने के स्थानों के विशद वर्णन आगमों में स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं किन्तु एक भी स्थान पर उनके जैन मंदिर में ठहरने का वर्णन नहीं है. यदि उस समय जैन मंदिर थे तो भगवान् उनमें कभी भी क्यों नहीं ठहरे या गये ? आगमों में कई नगरों का, और यहां तक कि यक्षायतनों और बागबगीचों तक का भी वर्णन अनेकों स्थलों पर विस्तार से उपलब्ध होता है किन्तु किसी भी नगर में तीर्थंकर-मंदिर का होना नहीं बताया है. प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रथम आश्रवद्वार में देवालय, मंदिर, मूर्ति, स्तूप, चैत्य आदि बनवाने को हिंसाकारी कृत्य और उसका अनिष्ट फल बताया. इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. जैनधर्म में मूर्तिपूजा घुसने के बाद भी अनेक विद्वानों ने उसकी कड़ी आलोचना की है जिससे मूर्तिपूजा का पक्ष अत्यन्त निर्बल हो जाता है. (२) मुखवस्त्रिका की अनिवार्यता-स्थानकवासी जैन मुनि सर्वदा और श्रावक धर्मक्रिया करते समय मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधे रहते हैं, क्योंकि(१) भगवती सूत्र में स्वयं भगवान् महावीर ने फरमाया है कि 'जीवहिंसा करके बोली गयी भाषा सावद्य (पापमय) होती है. (२) महानिशीथ नामक सूत्र में भी कहा है-कान में डाली गयी मुहपत्ती के बिना या सर्वथा मुहपत्ती के विना इरियावही क्रिया करने पर साधु को मिच्छा मि दुक्कडं का या डेढ़ पहरसी का दण्ड आता है.२ (३) मुख से निकलने वाले उष्ण श्वास से वायुकायिक जीवों की तो विराधना होती ही है किन्तु त्रस जीवों के मुख में प्रवेश की भी संभावना सदा रहती है तथा अचानक आई हुई खांसी, छींक आदि से थूक आदि शास्त्रों या कपड़ों पर गिरने की भी संभावना रहती है. मुखवस्त्रिका इन सब कठिनाइयों का समीचीन प्रतीकार है. (४) आगमों तथा अन्य साहित्य में स्थान-स्थान पर मुखवस्त्रिका मुह पर बांधने के पुष्कल प्रमाण प्राप्त होते हैं, यथा(१) ज्ञाताधर्मकथा के १४ वें अध्ययन में लिखा है कि जब तेतली प्रधान को उसकी स्त्री अप्रिय हो गयी तो वह दानादि देकर समय बिताने लगी. उस समय तेतलीपुर में आया हुआ सुव्रताजी का संघाडा नगर में भिक्षार्थ घूमता हुआ तेतली प्रधान के घर आया. तब तेतली प्रधान की अप्रिय पत्नी पोट्टिला ने उन साध्वीजी को अशनादि बहराया और पूछने लगी-आप अनेकों नगरों में भ्रमण करते हैं. कहीं ऐसी जड़ी बूटी या मंत्रादि उपाय देखा हो तो बताइये जिसके प्रयोग से मैं पुनः स्वपति की प्रिया बन जाऊँ. ऐसा सुनते ही उन महासतीजी ने अपने दोनों कानों में दोनों हाथों की अंगुलियाँ १. गोयमा ! जाहेणं सक्के देविंदे देवराया मुहुमकायं अणिज्जूहित्ताणं भासं भासति ताहेणं सक्के देविदे देवराया सावज्जं भासं भासइ जाहेणं सक्के देविंदे देवराया सुमकायं णिज्जूहित्ताण भासं भासइ ताहे सक्के देविंदे देवराया असावज्जं भातं भासइ-श्री व्याख्याप्रज्ञप्तौ षोडश शतकस्य द्वितीयो शे. २. कन्नेट्ठियाए वा मुहणंतगेण वा विणा इरियं पडिक्कमे भिच्छुक्कडं पुरिम।। महानिशीथ सूत्र अ०७ ३. तथा संपातिमा सत्त्वाः, सूक्ष्म च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तंच विज्ञ या मुखबस्त्रिका । -योगशास्त्र का हिन्दी भाषांतर पृ० २६० । अर्थात् संपातिम और सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिये मुखवस्त्रिका समझनी चाहिए । FOR m DDITI Jain ymncionary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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