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________________ १६० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय 装茶蒸茶茶葉非亲杂案浙滿滿染染紫講亲激 धीरे उसमें मूर्तियां आई, और उनका पूजन प्रारम्भ हुआ और अब तो साधक की समस्त साधना ही इस पूजापाठ के आसपास केन्द्रित हो गई. किन्तु प्राचीन और आगमिक साहित्य का अवलोकन करते हैं तो यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मूल जैनधर्म में मूर्तिपूजा को कोई स्थान नहीं था. यदि मूर्तिपूजा मूलतः आगमसम्मत होती तो आगमों में अवश्य इसका उल्लेख होता कि मूर्ति किस धातु की होनी चाहिये, किस आकार-प्रकार की होनी चाहिये, किस आसन और किस मुद्रा में होनी चाहिये ? किन्तु पूरे के पूरे आगमसाहित्य में किसी भी स्थान पर उक्त विषयों का वर्णन प्राप्त नहीं होता. इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आगमकारों को मूर्तिपूजा अभीष्ट नहीं थी, न जैनधर्म में उस समय मूर्तिपूजा प्रचलित ही हुई थी. उपासकदशांग सूत्र में भगवान महावीर के प्रमुख १० श्रावकों के जीवनचरित का तथा जीवन-चर्या का विस्तृत वर्णन है. उनके उपवास करने, पोषधशाला में जाने, पौषध करने के उल्लेख भी हैं, किन्तु किसी भी श्रावक द्वारा, किसी भी समय में मंदिर जाने या मूर्ति पूजने का कोई उल्लेख नहीं है. किसी श्रावक द्वारा मंदिर आदि के निर्माण कराये जाने का भी वर्णन नहीं है. अनेक आगमों में हमें भगवत्-वंदनार्थ जानेवाले श्रावकों, राजाओं और देवताओं का विशद वर्णन मिलता है, किन्तु तीर्थकरों की मूर्तिवंदनार्थ जानेवालों का नहीं. भगवती और पुप्फिया सूत्र में सोमिल को उत्तर देते हुए महावीर फरमाते हैं हमारे मत में ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि से आत्मविकास करना ही यात्रा है. 'ज्ञाताधर्मकथा' सूत्र में थावच्चा अनगार ने भी शुक परिव्राजक को ऐसा ही उत्तर दिया. इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैनधर्म में मंदिर-मूर्ति अथवा पर्वत, नदी आदि पर जाने को कभी भी पुण्यकार्य या धर्मकार्य (तीर्थयात्रा) नहीं माना गया. ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा आत्मविकास को ही जैनधर्म तीर्थयात्रा मानता है, हम देखते हैं कि भगवान ने भिन्न-गिन्न आगमों में, भिन्न-भिन्न नयविवक्षाओं से धर्मसाधना के भेद-प्रभेदों के विस्तृत वर्णन किये किन्तु किसी भी नय से साधना के किसी भी स्तर पर मूर्तिपूजा की गणना नहीं की. न ही उन्होंने कहीं मूर्तिपूजा का आदेश उपदेश रूप से विधिविधान ही किया. भगवती आदि सूत्रों में भगवान् के एवं गौतम आदि के विभिन्न विषयों पर सहस्रों प्रश्नोतर हुए. उनमें साधारण विषयों से लेकर गहन गम्भीर दार्शनिक गुत्थियों पर भी प्रश्नोत्तर हुए किन्तु मूर्तिपूजा के विषय में एक भी प्रश्नोत्तर नहीं हुआ. इससे सिद्ध होता है कि उस समय जैनधर्म में मूर्तिपूजा को कोई स्थान नहीं था. समवायांग सूत्र एवं दशाश्रुतस्कन्ध में ३३ प्रकार की आशातनाएँ टालना आवश्यक बताया है, किन्तु मन्दिर मति की कोई आशातना होना या टालना नहीं बताया. इसी प्रकार छेदसूत्रों में अनेकों बातों के प्रायश्चित्त बताये किन्तु मुर्तिपूजा नहीं करने से अथवा मूर्ति नहीं बनवाने से अथवा मूर्तिपूजा का खण्डन करने से कोई प्रायश्चित्त आता हो ऐसा नहीं बताया. १. मूर्तिपूजक समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडित बेचरदासजी 'जैन साहित्य में विकार' नामक ग्रन्थ में लिखते हैं : 'मूर्तिवाद चैत्यवाद के बाद का याने उसे चेयवाद जितना प्राचीन मानने के लिये हमारे पास एक भी ऐसा मजबूत प्रमाण नहीं है जो शास्त्रीय सूत्रविधिनिष्पन्न या ऐतिहासिक हो. यों तो हम और हमारे कुलाचार्य भी मूर्तिवाद को अनादि का ठहराने और महावीरभाषित बतलाने का बिगुल बजाने के समान बातें किया करते हैं, परन्तु जब उन बातों को सिद्ध करने के लिये कोई ऐतिहासिक प्रमाण गा अंगसूत्र का विधिवान्य मांगा जाता है, तब हम बगलें झांकने लगते हैं और अपनी प्रवाहवाही परम्परा की ढाल को आगे कर अपने बचाव के लिये बुजगों को सामने रखते है. मैने बहुत कोशिश की तथापि परंपरा और 'बाबावाक्यं प्रमाणं' के सिवा मूर्तिवाद को स्थापित करने के संबंध में मुझे एक भी प्रमाण या विवान नहीं मिला-मैं यह बात हिम्मतपूर्वक कह सकता हूँ कि मैंने मुनियों या श्रावकों के लिये देवदर्शन या देवपूजन का विधान किसी भी अंगसूत्र में नहीं देखा. इतना ही नहीं बल्कि भगवती आदि सूत्रों में कई एक श्रावकों की कथायें आती हैं. उनमें उनकी चर्या का भी उल्लेख है, परन्तु उसमें एक भी शब्द ऐसा मालूम नहीं होता जिसके आधार से हम अपनी उपस्थित की हुई देवपूजन और तदाश्रित देवद्रव्य की मान्यता को घड़ी भर के लिये भी टिका सकें. RECE Jaincareenientime arjsinclibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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