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________________ KEREN EENEN MEMEME १४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय वियोग- वात्सल्य का वर्णन भी कम सुन्दर नहीं है. देवकी के हृदय की थाह वही स्त्री ले सकती है जिसने ७-७ पुत्रों को जन कर भी मातृत्व का आनंद नहीं उठाया. उसके हृदय में इस बात का बड़ा दर्द है कि उसने कन्हैया को हाथ पकड़कर चलाया नहीं, रोते हुए को बहलाया नहीं, ओढ़ाया नहीं, पहनाया नहीं. इस पश्चात्ताप में घुल-घुल कर देवकी सचमुच वात्सल्य की मूर्ति बन गई है " जाया मैं तुम सारिखा कन्हैया, एक नाले सात रे । एका ने हुलरायो नहीं कन्हैया गोद न खिलाया मात रे || ७ || रोवतो मैं राख्यो नहीं कन्हैया ! पालखिये पारे। हालरियो देवा तशी, कन्हैया, म्हारे हंस रही मन सांय रे ॥ ॥ा गये न करावी थिरी, कन्हैया ! श्रगुलियाँ विलगाय रे । हाऊ बैठो छे तिहां, कन्हैया ! लगो तूं मति जाय रे ॥१०॥ ओलियो पहरायो को नहीं, कन्हैया, टोपी न दीघी माथ रे । काजल पि सार्यो नहीं, कन्हैया, फदिया न दीधा हाथ रे || १० || कहना न होगा कि इस भावना को वात्सल्य रस के सम्राट् महाकवि सूर भी नहीं पहुँच सके हैं. वीर और रौद्र रस के प्रसंग भी यथास्थान आये हैं. जब कुंती कृष्ण के पास पहुँचकर द्रौपदी की खोज लाने के लिए उत्तेजित करती है, तब कृष्ण जो वचन नारद को कहते हैं उनमें उनका उत्साह छलका पड़ता है'दल बादल पाछा फिरे, फिरे नदियाँ का पूर । - 'माधव वचन फिरे नहीं, जो पिच्छम ऊगे सूर ।। पृ० ४१४ रौद्र रस का प्रसंग तब उपस्थित होता है जब राजा पद्मोत्तर कृष्ण द्वारा भेजे गए दूत को बुरा भला कह बैठता हैसिंह रे मुंडा मांय, कांई घाले श्रांगुली रे । असवारां री होड करे, झेशी पासी रे ॥ पृ० ४१७ करुण और शान्त रस के चित्र पशुओं के करुण क्रन्दन, स्कंदक ऋषि, उदाई राजा, मेघकुमार, गजसुकुमाल, कार्तिक सेठ आदि के क्षमा-भाव में दिखाई देते हैं. यों प्रत्येक कथा का अन्त शान्तरस में ही हुआ है, सभी रस शांतरस के सहयोगी बनकर ही आये हैं. हास्य और व्यंग्य के लिए भी कतिपय अवसर उपस्थित किये गये हैं. नेमिनाथ विवाह के लिए इच्छुक नहीं है. इसके कारणों की कल्पना हास्य-व्यंग्य प्रसूत है. कृष्ण की रानियां देवर नेमिनाथ को चिढ़ाने के लिए कभी तो कहती हैं कि तोरण आया करे आरती, टीको काढ़ने सासू यांचे नाको रे' अतः 'इम डरती पर नहीं कभी कहती है 'बाई चित करने चंवरी चढ़े तीने फेरा लेना पड़े लारो रे' इसलिए विवाह नहीं करता. कभी कहती हैं- जुवाजुई रमतां यहां रखे बनड़ो जावे हारो हे बाई' और कभी 'दोरड़ो, दोरो हैं कांकण दोरड़ो खेलणो पड़े एकण हाथो हे बाई'. इसी प्रकार एक स्थान पर सखियां नेमिनाथ को काला कहकर राजुल से मजाक करती हैं "सहियां कहे राजुल ! सुणो, बाई ! कालो नेम कुरूपो ए । भल भूपो एऔर भलेरो लावसां के सहियाँ ए ॥ जी हो आंखड़ली अंजावणी, लाला, भाल करावणचन्द | जो हो गाला टीकी सांवली, लाला, आलिंगन आनंद ॥ ॥ जी हो पग मांडण ग्रही अंगुली, लाला, ठुमक ठुमक री चाल । जी हो बोलण भाषा तोतली, लाला, रिंभावण अतिख्याल ||१०| जी हो दही रोटी जिमावणे, लाला, अरू चबावण तंबोल । जी हो मुख सू मुख में दिरीजतां, लाला, लीला अधर अमोल ॥११॥ - जयवाणी : पृ० ३३७ Jain Education International - पृ० ३३२-३३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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