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________________ नरेन्द्र भानावत : प्रा. जयमलजी : व्यक्तित्व-कृतित्व : १४७ 器款業蒂森談談染染跌落落落落落落款除 मुनिवर मोटा अणगार, करता उग्र विहार । पड रही तावड़े री भोट, तिरसा सू सूखा होट । कठिन परिसो साधनो ए॥ तालवे कोई नहीं थूक, जीभ गई ज्यांरी सूख, होठो रे आई खरपटी ए॥-पृ. १८३ ॥ निर्वेदप्रधान रचनाओं के होने पर भी शृंगार-रस के संयोग-वियोग के कई रसीले चित्र यहाँ देखने को मिलते हैं. संयोग का वर्णन अधिकतर वहाँ हुआ है जहाँ संयम लेने के पूर्व नायक सांसारिक भोग भोगता है.' विरह के चित्र वहाँ अंकित हैं जहाँ नायक दीक्षित हो जाता है. राजमती के प्रिय-वियोग के चित्र बहुत ही सुन्दर और स्वाभाविक बन पड़े हैं. उसके लिए 'महल अटारी भए कटारी' और 'चन्द-किरण तनु दाझतिया' है. उसकी आँखें प्रियदर्शन को आतुर हैं-- तरसत अंखियां, हुई द्रम-पखियां ! जाय मिलो पिव सू सखियां !! यादुनाथ रे हाथ री ल्यावे कोई पतियां ॥३॥ पृ० २२६ वह प्रिय को उपालंभ देना चाहती है. "थे तज राजुल किम भये जतिया" जो उसका उपालंभ नेमिनाय को देने जायगी, उस दूतिका को वह गहनों से लाद देगी जाकं दगी जरावरो गजरो, कानन कं चूनी मोतिया ॥३॥ अंगुरी • मूंदड़ी-प्रोढ़ण • फभड़ी, पेरण • रेशमी धोतिया ॥४॥ -पृ. २२६-२३०॥ उसका यह विरह ही उसे अनन्य प्रेमिका बनाकर मुक्ति-पथ पर ले दौड़ता है और वह अन्त में साधिका बन जाती है. इस प्रकार कहा जा सकता है कि यहाँ जो शृंगार आया है वह शान्त रस की पीठिका बनकर ही. वात्सल्य-रस के संयोग के चित्र भी यहाँ उसी तन्मयता से अंकित हैं. देवकी के ६ पुत्र देवता के उपक्रम से मृत घोषित हो जाते हैं, कृष्ण का पालन-पोषण भी वह नहीं कर पाती. पर जब भगवान् नेमिनाथ से उसे यह जानकारी मिलती है कि जो ६ साधु हैं वे जन्मत: उसी के पुत्र हैं तो उसका मातृत्व उमड़ पड़ता है. वह जब छहों मुनिवरों के पास पहुँचती है तो उसके संयोग-वात्सल्य का स्रोत उमड़ पड़ता है तड़ाक से तूटी कस कंचू तणी रे, थण रे तो छूटी दूधाधार रे । हिवड़ा माहे हर्ष मावे नहीं रे, जाणे के मिलियो मुझ करतार रे ॥४॥ रोम-रोम विकस्या, तन-मन ऊलस्या रे, नयणे तो छूटी आंसू धार रे । बिलिया तो बांहा माहे मावे नहीं रे, जाणे तूट्यो मोत्यां रो हार रे ॥॥ -पृ. ३३०॥ इस संयुक्त अनुभूति पर न जाने सूर के कितने पद न्यौछावर किये जा सकते हैं. संयोग-वात्सल्य का प्रत्यक्ष रूप वहाँ देखने को मिलता है जब देवकी की गोद में गजसुकुमाल किलकारी करते हैं. वह उसे यशोदा की तरह झुलाती है, आँखों में अंजन आँजती है, अंगुली पकड़कर चलाती है, खाने को दही-रोटी देती है. इस वर्णन को पढ़ कर तो ऐसा लगता है मानों कवि जयमल ने माता का हृदय पा लिया हो. १. चद्र-वदन मृग-लोयणीजी, चपल-लोचनी बाल । हरीलंकी, मृदु भाषिणीजी, इंद्राणी-सी रूप रसाल ॥२॥ प्रीतवती मुख अगलेजो, मुलकंती मोहन चेल । चतुरांना मन मोहतीजी, हंस-गमणी सूं करतां बहु केल ।।३।। -पृ. ३२२ २. कुण ताके तारां ने, छोड़ शशी, म्हारे सांवरिया सरीखी सूरत किसी, म्हें दूजा भरतार नी तृष्णा त्यागी।। -पृ० २३० ३. जी हो खेलावण-हुलरावणे, लाला, चुनावण ने पाय । जी हो न्हवरावण पेहरावणे, लाला, अंगो अंग लगाय ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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