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________________ नरेन्द्र भानावत: आ. जयमल्लजी : कृतित्व-व्यक्तित्व : १४६ करी कुसामदी ताहरी पिण म्हारे दया न पायो-ए। न सुहायो ए कालो वर किण काम रो के सहियां ए-१०२३२ यहाँ तक हमने आलोच्य कवि की प्रबन्ध-पटुता और वर्णन-क्षमता का विवेचन किया है. अब उसकी मुक्तक रचनाओं पर विचार करेंगे. मुक्तक रचनाओं में कथा की कोई धारा नहीं बहती. यहाँ प्रत्येक मुक्तक अपने आप में स्वतन्त्र होता है. जयमल्लजी ने जिस सफलता के साथ कथाओं को प्रबन्धात्मक रूप दिया है, उसी सफलता के साथ भावनाओं को मुक्तक-रूप भी. इनके मुक्तक-काव्य को तीन भागों में बांटा जा सकता है(१) स्तुतिप्रधान मुक्तक (२) नीतिप्रधान मुक्तक (३) तत्त्वप्रधान मुक्तक स्तुतिप्रधान मुक्तकों में तीर्थंकरों, विहमानों, सतियों, साधुओं आदि की प्रधान रूप से स्तुति की गई है. तीर्थंकरों में कवि को विशेष रूप से सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ' और २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ अधिक भाये हैं. विहरमानों में प्रथम विहरमान श्री सीमंधर स्वामी कवि के आराध्य रहे हैं. सतियों में आदर्श सतियों की नाम--गणना (६४ सतियां) कर उनका शील-माहात्म्य बतलाया है. साधुओं में आदर्श साधुओं के नाम गिना कर उनकी साधना का गुणानुवाद किया हैं. चार मंगल (अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म) भी कवि के लिए स्तुति-योग्य रहे हैं. प्रथम मंगल में अरिहन्त के ३४ अतिशय और ३५ वाणी की विशिष्टताएँ वर्णित हैं. दूसरे मंगल में सिद्ध का स्वरूप निरूपित है. तीसरे मंगल में साधु की ज्ञान क्रिया और महिमा दिग्दर्शित है. चौथे मंगल में धर्म, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रिभोजननिषेध का साधनात्मक रूप प्रदर्शित है. यहाँ जो स्तुत्य पात्र आये हैं वे शक्तिशाली, पुरुषार्थी और वीतरागभावी हैं. उनकी स्तुति करने के मूल में दो भावनाएँ निहित हैं. एक तो स्तुति-योग्य पुरुषों के समान अपने आप को बनाने की ललक और दूसरे उनके नामस्मरण से दुखमुक्ति की बलवती स्पृहा, कवि शान्तिनाथ का स्तवन इसीलिए करता है कि तुम नाम लिया सब काज सरे, तुम नामे मुगति महल मले ॥-पृ० ७ ठीक यही बात सीमंधर स्वामी के नाम-स्मरण के बारे में भी कही गई है तुम नामे दुःख दोहग टले, तुम नामे मुगति सुख मले ॥ --पृ० १३ इन स्तुतिप्रधान मुफ्तकों में कवि अपने आराध्य के गुणकीर्तन में ही विशेष लगा रहा है. भक्त कवियों की सी दीनता, आर्तता, याचना, लघुता और विह्वलता के दर्शन नहीं होते. न तो कवि तुलसी की भाँति राम के दरबार में अपने हृदय की 'विनयपत्रिका' को खोल कर रखता है, न सूर की भाँति वह अपने आराध्य को चुनौती देता है कि 'हौं तो पतित सात १. चालीस धनुष ऊँची रे देहो वलि हेमवरणी उपमा रे कहो। दीठे दिल दरियाव ठरो, श्री शान्ति जिनेश्वर शान्ति करो ||१६|| पृ०६ २. पांचे अगनी कमठे साझी, देखण भीड़ मिली जाझी । .. नागने काट्यो काठतांणी, श्री पास भजो पुरुषादानी ||८|| पृ० ८ ३. 'मंगल' एक प्रकार का काव्य-रूप है जिसमें विवाह-वर्णन को प्रधानता रहती है. विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गोत भी मंगल कहलाते यहाँ 'मंगल' शब्द भिन्न अर्थ में आया है. www.janlienorary.org
SR No.012040
Book TitleHajarimalmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1965
Total Pages1066
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size31 MB
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