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________________ ३३४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ | खण्ड मात्र की असि-मसि-कृषि शिक्षा देने तथा करुणा या मैत्री के द्वारा वे भूतों के अद्वितीय नाथ हए थे (हिरण्यगर्भः समवतंताग्रे, भूतस्य जातः पतिरेक आसीत)। उनकी भाषा प्राकृत या जनभाषा थी जो कि अपने सरल रूप के कारण वैदिकसंस्कृत का पूर्वरूप वैसे ही है, जैसे कि लोकिक (क्लासीकल) संस्कृत का पूर्वरूप वैदिक-संस्कृत है। यह प्राकृत भाषामय मोक्षोन्मुख व्रात्य या श्रमण संस्कृति अपने मूलरूप में आर्हतो या आधुनिक जैनियों में ऋषभयुग से चलती आयी। आजीवक आदि विविध सम्प्रदाय तथा गौतमबुद्ध की प्रारम्भिक कठोरसाधना स्पष्ट बताती है संयम-नियम-यम-प्रवान यह श्रमण संस्कृति ही भारत की आद्य या मौलिक संस्कृति थी तथा अन्तिम श्रमण केवली महावीर ने भी उसका ही उपदेश आचरणपूर्वक किया था। मौर्यधुग के मगध के बारह वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण आयी सुखशीलता और उपाश्रय-निवास के कारण श्रमण परम्परा में आगे भेद (स्थविरकल्प या श्वेताम्बरत्व) का निराकरण करके जिनकल्प या दिगम्बरत्व के मूलरूप की प्रतिष्ठा आम्नायाचार्य कुंद-कुंद स्वामी ने की थी, जो भारत ही नहीं अपितु विश्वसमाज को जीव-उद्धार कला की अनुपम देन है। वीरोत्तरकाल जयधवल, तिलोयपण्णाति, जम्बूदीपपण्णत्ति से लेकर तावतार आदि में तीर्थाधिराज महावीर स्वामी से लेकर लगभग ६८३ वर्ष तक हुए भारत की मल (श्रमण) संस्कृति के संरक्षकों की नामावलि, थोडे से वर्ष-प्रमाण में भेद के साथ उपलब्ध है । आर्यपूर्व काल में भारत के मूलसंघ में नामोल्लिखित चारों (द्रविड, नन्दि, सेन तथा काष्ठा) संघों में से द्वितीय. नन्दिसंघ की पट्टावलि भी न्यूनाधिक उक्त तालिकाओं का अनुकरण करती हुई केवली, श्रुतकेवली, एकादशांग-दशपूबंधारी, एकादशांगधारी और केवल आचारांगवेत्तारों के उल्लेख के बाद अर्हलि, माघनन्दी, गुणधर, धरसेन और पुष्पदन्तभूतबलि का भी समावेश करती है। श्रुतावतार के अनुसार कषायपाहड और षटखंडागम के विषय को लेकर लिखने वालों में सर्वप्रथम कुंदकुंदचार्य ही हैं । शामकुण्ड की 'पद्धति', तुम्बूलुराचार्य की 'व्याख्या' और समन्तभद्र की कृति के समान टीका न होकर आचार्य कुंदकुंद का 'परिकर्म' ग्रन्थ था । यह विस्तृत व्याख्या या भाष्य परमोपकारी आचार्य श्री वीरसेन के सामने था और इतना महत्वपूर्ण था कि उन्होंने अपनी टोकाओं (धवल, जयधवल) में इसके सिद्धान्तों को सर्वाधिक महत्व दिया है। कुंदकंद की कृतियां यद्यपि आम्नायाचार्य की प्रथम कृति 'परिकम' इस समय उद्धरण रूप से ही उपलब्ध है, तथापि यह उन्हें श्रुतकेवलियों की अन्तरंग परम्परा का सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के प्रथम प्ररूपक कुंदकुंदाचार्य को करणानुयोग-दक्षता को सिद्ध करने में समर्थ है क्योंकि आचार्य श्री की मूलाचार, ८४ पाहुड़ों में से उपलब्ध अष्ट प्राभृत, रयणसार, दसभक्ति, बारस अणुवेक्खा, नियमसार, पंचत्थिकायसंग्रह और प्रवचनसार कृतियां ब्राह्मण, बौद्धादि वाङ्मयों में दुर्लभ द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्वज्ञान, स्पष्ट आचार-संहिता तथा लोक या जगत के स्वरूप, आदि की आद्य प्ररूपक है। ब्राह्मण-संस्कृति के ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषत आदि चिन्तन के प्रेरक हैं। ये कंदकंदाचार्य को भारत की मूल द्रविड या श्रमण-संस्कृति के आद्य प्ररूपक रूप में दिखाते हैं । गुरुपरम्परा ___ भारतीय शिष्टाचार की सनातन परम्परा के अनुसार आचार्य कुंदकुंदाही अपने विषय में मौन नहीं है, अपितु प्रमुख टीकाकार भी उनके विषय में विशेष भिज्ञता नहीं देते है। दर्शनसार अवश्य कहता है कि आचार्यश्री के विदेहगमन सूचक गाथाएँ पूर्वप्रचलित गाथाओं का संकलन है। पचास्तिकाय की टीका में भी जयसेनाचार्य ने आम्नायाचार्य के विदेहगमन और सीमन्धर स्वामी से समाधान प्राप्त करने का उल्लेख किया है। प्रवचनसार की एक गाथा भी इसका संकेत करती है। इसकी टीका में जयसेनाचार्य का इन्हें कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव का शिष्य लिखने की अपेक्षा नन्दिसंघ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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