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________________ ५] जैन संस्कृति प्रतिष्ठापक- आचार्य कुंदकुंद प्राग्वैदिक पुरुष व्रात्य ( द्रविड 'श्रमण ) थे ३३५ की पट्टावल के जिनचन्द्र का गुरुत्व संभव हो सकता है, क्योंकि जिनचन्द्र माघनन्दि के शिष्य थे और माघनन्दि गुणघर-घरसेन के पूर्ववर्ती एवं अन्तिम श्रुतवली भद्रबाहु स्वामी के उत्तरकालीन प्रमुख श्रुतघरों में थे । आम्नायाचार्य स्वयमेव अपने बोघपाहुड़ में कहते हैं : 'तीर्थाधिराज वीर प्रभु ने अर्थरूप से जो आगम कहा था, उसे शब्दरूप से गणधरादि ने गुंथा था । भद्रबाहु के इस शिष्य कुंदकुंद ने उसे वैसा हो जाना है और कहा है । द्वादशांग के विशदवेत्ता - और चौदहपूर्व के विस्तृत ज्ञाता, श्रुतज्ञानी मेरे 'गमक गुरू' भगवान भद्रबाहु की जय हो ।' इसके सिवा कुंदकुंदाचार्य अध्यात्म विश्व में उपलब्ध एकमात्र कृति समयसार के प्रारम्भ में ही सिद्धवंदना करके स्पष्ट लिखते हैं 'श्रुतकेवली द्वारा कथित इस समयप्राभृत को कहता हूँ ।' आम्नायाचार्य के गुरुवंदनासूचक ये दोनों उल्लेख अधिकार - पूर्वक घोषित करते हैं कि वे उसी विद्या का उपदेश दे रहे हैं जो भगवान वीर को अर्धमागधी से निकलकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वाभी तक अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित थी। भारत की मूल (श्रमण ) परम्परा में मगध के दुर्भिक्ष के कारण आये विकार (सम्प्रदाय भेद) के फलित रूप श्वेताम्बर सम्प्रदाय को भी भद्रबाहु स्वामी अन्तिम श्रुतकेवली रूप से मान्य हैं जैसा कि पाटलिपुत्र की वाचना के समय ग्यारह कथा तथा संकलन करने के बाद दृष्टिवाद के लिए स्थूलभद्र स्वामी का उनके पास जाना और अपनी शिथिलता के कारण पूर्ण शिक्षण पाने की असफलता से स्पष्ट है । किन्तु मूल आम्नाय या संघ में आचारांगधारियों के अन्तिम श्रुतवली ने कृपा करके स्थूलभद्र को बारहवें अंग के विद्यानुवाद पूर्व तक का शिक्षण दिया था और आदेश दिया था कि इसका उपयोग चमत्कार या लौकिक स्वार्थ के लिए मत करना क्योंकि इसकी सिद्धि होते ही लघु तथा महाविद्याएँ तुम्हारे सामने आकर कहेंगी 'प्रभो क्या आज्ञा है ?' किन्तु स्थूलभद्र इस प्रलोभन का पार न पा सके और बहुरूपिणी विद्या को जगा कर अपनी गुफा में सिंह रूप से बैठे अपनी बहिन के द्वारा ही गुरुवर को निवेदित हुए । परिणाम यह हुआ कि भद्रवाहु स्वामी ने आगे पढ़ाना रोक दिया और स्थविरकल्पियों को जैसे-तैसे ग्यारह अंगों से ही सन्तोष करके, बारहवें अंग को लुप्त घोषित करना पड़ा । समय से ही बारहवें अंग के करणानुयोग के मुख्य विषय, मोहनीय की मुख्य तथा उसकी भूमिका को दृष्टि में रख कर गुणधराचार्य ने 'कसा पाहुड' को गाथा रूप से लिपिबद्ध किया तथा घरसेनाचार्य ने आचार्य भूतबलि - पुष्पदंत को पढ़ाकर कम्म पाहुड (जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंघसा मित्त, बेदणा, बग्गणा और महाबंध ) को लिपिबद्ध कराया था । तालर्य यह है कि मूल श्रमण परम्परा में बारहवें अंग की महत्ता, गूढ़ता तथा उपयोगिता को समझ कर श्रुतघर आचार्यों ने मूल उद्गम तीर्थंकरों की वन्दना करके, दिव्यध्वनि की आराधना और उसके ग्रन्थक गणधरादि को प्रणाम करके शास्त्रकार आचार्यों को तीर्थंकर ज्ञान ( आगम ) की अनुकूलता की शपथ पूर्वक ही शास्त्रों की रचना की थी । मूलसंघ एवं कुन्दुकुन्दान्वय भगवान् महावीर के समय में श्रमणों या आहंतों को 'निगंठ' या निर्ग्रन्थ नाम से जाना जाता या जो कि दिगम्बर का द्योतक है । श्रमण संस्कृति का लक्ष्य मोक्ष था और मोक्ष के लिए सर्वांग अपरिग्रही होना अनिव. यं है । फलतः इस कालचक्र में हिरण्यगर्भ ऋषभ से चला धर्म मूलरूप में दिगम्बरत्व या जिनकल्प को ही मोक्ष का चरम बाह्य साधन मानता है । श्वेताम्बर अंगों में भी ऋषभदेव को विशुद्ध जिनकल्पी या दिगम्बर हो माना है तथा थीच में अचेल सचेल मानकर बीर प्रभु को भी विशुद्ध जिनकल्पी लिखा है का उद्भव लिखना, श्वेताम्बरों के लिए स्व-बाधित है । वे भूल जाते हैं कि यह अवसर्पिणी अर्थात् 'होयमान' काल-क्रम है । इसीलिए रामायणयुग से महाभारतयुग की मर्यादाएँ हीयमान हैं । आगमों के मूल शब्द अचेल की अल्प-चेल व्याख्या उत्तरकालीन हैं। यह व्याख्या श्रमण संस्कृति के लिए आत्मघात के समान है, क्योंकि अन्यमती कह सकते हैं कि अहिसा । फलतः वीर निर्वाण संवत् ६०९ में बोटिकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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