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________________ जैन संस्कृति प्रतिष्ठापक- आचार्य कुंदकुंद प्राग्वैदिक पुरुष व्रात्य ( द्रविड 'श्रमण' ) थे गोरावाला खुशालचंद्र काशी आधुनिक इतिहास पद्धति पश्चिम की है। पाश्चात्य इतिहासज्ञों की पहुँच आर्यों के आव्रजन तक ही रहती, यदि भारत में प्राग्वैदिक या द्रविड़ संस्कृति का अस्तित्व मोहनजोदड़ो और हारख्पा ने मूर्तिमान न किया होता । इस उत्खनन विश्व की मान्यता बदल दी है क्योंकि इन दिया है कि प्राग्वैदिक-संस्कृति 'सुविकसितनागरिकता' थी तथा आयं लोग द्रविड़ संघ से वेद भी अपने इन विरोधियों को दास, व्रात्य आदि नामों से याद करते हैं । अवशेषों ने कम सभ्य यह सिद्ध कर तथा दक्ष थे । व्रात्यों का स्वरूप संक्षेप में यह है कि वे यज्ञ, ब्राह्मण और बलि को नहीं मानते । ऋग्वेद सूक्तों में व्रात्य का उल्लेख है किन्तु यजुर्वेद और तैत्तिरीय ब्राह्मण उसे नरमेघ के बलि-प्राणी रूप से कहता है । तथा अथर्ववेद कहता है कि 'पर्यटक व्रात्य ने प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी' (१५- १) । वैदिक और ब्राह्मण साहित्य का अनुशीलन एक ही स्पष्ट निष्कर्ष की घोषणा करता है कि 'दास या व्रात्य वे 'जन' थे जिनका वैदिकों से विरोध था । इसलिए ही वेद गोमेघ के बैल के समान नरमेघ में (व्रतात् समूहात् च्यवति यः स व्रात्यः) 'ब्रात्य' को बलि का प्राणी मानते थे । उत्तर- वैदिक साहित्य की समीक्षा वेद विरोधियों के विषय में एक स्पष्ट उल्लेख करती है । पाणिनीय के सूत्रों पर रचित पातंजलि की वृत्ति में द्वन्द्व समास के स्थलों को मुखोक्त करते हुए पातंजलि कहते हैं - जिनमें शाश्वत अर्थात् नैसगिक विरोध होता है, यथा सांप और नेवला, ब्राह्मण और श्रमण, ('येषां च शाश्वतिको विरोधः | अहिनंकुलयोः ब्राह्मणश्रमणयोः' ।) वहाँ भी द्वन्द्व समास होता है । स्पष्ट है कि प्राग्वैदिक-जन व्रात्य द्रविड़ या श्रमण थे । और ये पशुपालक ऋ गतौ ष्यत् प्रत्यये आर्य:, भ्रमणशील (आर्यो) जनों की अपेक्षा अध्यात्म, सन्यास, कायक्लेश या तप, मोक्ष और दर्शन की दृष्टि से, कर्मकाण्डी बलि ( हिंसामय यज्ञ), सोमपायी और स्वर्गकामी आर्यों से आगे थे । ये घोड़ा, वाण, सोमपान, रुद्रता और पर्वतीय सहिष्णुता के बल पर जीतने वाले आर्यों की श्रेष्ठता मानने लिए सहमत नहीं हुए थे । परिणाम यह हुआ कि तीर्थंकर सुव्रत ( रामायण युग) और नेमियुग ( महाभारतकाल ) में भी इनका वैदिकों या ब्राह्मणों से संघर्ष रहा तथा राक्षस ( रक्षस् शब्दात् स्वार्थेऽण् ) का अर्थ यज्ञादि विरोधी तथा पातकी ( ५- ३५ - ४६ ) उसी तरह कर दिया, जिस प्रकार बेघर या खानाबदोश अर्थवाले 'आर्य' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ कर दिया गया था क्योंकि ये विजेता थे । द्रविड़ वात्य-भ्रमण ये के पाश्चात्य विद्वानों (श्री बेवर तथा हावर) ने प्रारम्भ में आहंत धर्म की अनभिज्ञता के कारण बौद्धों को व्रात्य कहा था । किन्तु अद्यतन - परिशीलन से स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध के आविर्भाव (तीर्थंकर महावीरयुग) के बहुत पहिले रामायण और महाभारत काल में व्रात्यों (श्रमणो ) का गुरु सम्प्रदाय था तथा वेदों के हिरण्यगर्भ अर्थात् ऋषभदेव से ही प्रजापति की सृष्टि हुई थी । ये शिश्नदेव या दिगम्बर थे । ये प्रव्रज्या अर्थात् ज्ञान-ध्यान तप की, विहार करते हुए साधना करते थे । 'उनके गर्भ में आते हो सुवणं की वृष्टि हुई थी, अतः वे पहिले हिरण्यगर्भ कहलाये और बाद में प्राणि ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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