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________________ वर्तमान न्याय व्यवस्था का आधार : धार्मिक आचार संहिता ३९ पर यह धर्म सारे समाज के लिये न तो उपयोगी है और न प्रासंगिक हो, अतः उसकी यहाँ चर्चा करना आवश्यक नहीं है। भगवान महावीर ने उन लोगों के लिये, जो गहस्थ या समाज में रहकर, अपनो जीविकोपार्जन करते हो, व सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हों, 'आगार धर्म' का विधान किया, जिसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का लघुरूप में या आंशिक परिपालना का निर्देश दिया। 'अनागार धर्म' का आधार "महाव्रत" व आगार धर्म का आधार "अणुव्रत" कहलाया। इस निबंध का विषय सामाजिक जीवन से संबंधित होने के कारण, हमारी सारी चर्चा का विषय "अणुव्रत' होगा। भगवान महावीर के गृहस्थ अनुयायी जो उनकी वाणी का श्रवण करके, अपने जीवन को कारक या सफल बनाते थे, "श्रावक" कहलाते थे, और "अणुव्रत' का विधान श्रावक जीवन की ही आचार संहिता है । न्याय व्यवस्था में सामाजिक लोगों से सुनागरिक बनने की अपेक्षा की जातो है और नागरिकता को विकृत करने या भ्रष्ट करने की प्रवृत्तियों को अपराध माना जाता है और इसी आधार पर दंड व्यवस्था की संरचना को गई है । दंड व्यवस्था का विशद् एवं निश्चित आकार "भारतीय दंड संहिता" में सन्निहित है एवं व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकारों की रक्षा का विशद् विवेचन "भारतीय सविदा अधिनियम" आदि व्यवहार प्रक्रियाओं में सन्निहित है। किसी को अपराधी ठहराने या संविदा की वैधता या उसकी परिपालना का निर्देश देने के पूर्व प्रमाण जुटाये जाने की सारी प्रक्रिया "भारतीय साक्ष्य अधिनियम" में समाविष्ट की गई है । "भारतीय दण्ड संहिता", "संविदा अधिनियम", "साक्ष्य अधिनियम' का इस देश को न्याय व्यवस्था में गत दो शताब्दियों से निरतर प्रयोग किया जाता रहा है और समय की दीर्घ अवधि व परिवर्तित परिस्थितियों के उपरांत भी, इन संविदाओं में अब तक कोई सारभूत परिवर्तन या संशोधन नहीं हुआ है, जिससे लगता है कि इनमें उल्लेखित आचार संहिता के प्रावधानों का स्थायी महत्व है। जैन धर्म में सामाजिक जीवन में रत "श्रावक" की आचार संहिता एवं इन अधिनियमों व संहिताओं में वर्णित आचार सहिता का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ऐसा स्पष्ट विदित होता है, कि दोनों में अपूर्व साम्य व एकरूपता है जो निम्नलिखित सारणो से उजागर हो सकती है : सारणी १. जैन आचार एवं दण्ड-संहिता श्रावक के व्रत व अतिधार दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध १. प्रथम अहिंसा अणुव्रत १. किसी व्यक्ति का सदोष अपराध या परिरोध (स्थूल प्राणातिपात का त्याग ) ___ करना ( धारा ३४१ से ३४८) ए-व्रत २. अभित्रास पहुँचाना ( धारा ५०६, ५०७) ३. परिरोध के लिये व्ययहरण या अपहरण ( धारा शरीर में पोडाकारी, अपराधी तथा सापेक्ष निरपराधी ३६३ से ३६५) के सिवाय शेष, द्वीन्द्रिय आदि चलते-फिरते ४. सोद्देश्य हत्या या मानव वध (धारा ३०२-३०४) जीवों को संकल्प पूर्वक हिंसा करने का त्याग, ५. आत्म हत्या या हत्या का प्रयास (धारा ३०९बी-अतिचार ३०७), १. जीवों को बंधन में लेना, गर्भपात कारित, करना या भ्रूण हत्या (धारा २. जीवों का वध करना, ३१२-३१८), ३. जीवों के अंग उपांग का छेदन भेदन करना, स्वेच्छा से तीक्ष्ण या मोटे हथियार से साधारण ४. जीवों पर अधिभार लादना, या गंभीर चोट कारित, करना या अंगोपाग का ५. अपने आश्रित जीवों को आहार पानी से वंचित छेदन करना (धारा ३२३ से ३२६, २३७ से रखना, ३३८). ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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