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________________ वर्तमान न्याय व्यवस्था का आधार धार्मिक आचार संहिता सोहनराज कोठारी जिला एवं सेशन न्यायाधीश (सेवा निवृत्त) व्यक्ति की मूल-भूत भौतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं की संपूर्ति के साधनों की सामूहिक सुरक्षा, संतुलन व विकास को गति देने हेतु सामुहिक शक्ति के रूप में "समाज" का अभ्युदय हुआ और समाज ने अपने सदस्यों के हितों में सामंजस्य बिठाने के लिये नैतिकता के आधार पर आचार संहिता का निर्माण किया । नैतिकता का मूल 'धर्म' या 'अध्यात्म' है और धर्म या अध्यात्म का फूल नैतिकता है, नैतिकता विहीन धर्म को कल्पना नहीं की जा सकती और धर्म विहीन नैतिकता का कोई आकार ही नहीं बन पाता । ऐसी स्थिति में समाज द्वारा संरचित एवं प्रवर्तित आचार संहिता, जिसे हम "कानून" की संज्ञा दे सकते हैं, उसका उद्गम वस्तुतः धर्म हो रहा है, इसलिये धर्माचरण के नियमोपनियम व 'कानून' के अनुसार समाज व्यवस्था सूत्र लगभग समान रहे हैं। दोनों व्यवस्थाओं में अंतर केवल इतना ही है कि समाज द्वारा स्थापित न्याय व्यवस्था के आधार व "कानून” की परिपालना आवश्यक तौर से समाज की बाह्य शक्ति"प्रशासन" व्यक्ति को विवश करके करवाता है और परिपालना न करने पर व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है, पर धर्माचरण के नियमोपनियम, जिन्हें "व्रत" कहा जाता है, उसकी परिपालना व्यक्ति को स्वेच्छा से, अपने आत्मानुशासन से प्रेरित होकर ही करनी होती है व उसमें दबाव, भय या प्रताड़ना को कोई स्थान नहीं है। समाज के अधिकांश व्यक्तियों के विवेक एवं अंतर-भावना इतने जागृत नहीं होते कि वे स्वेच्छा से अपने हितों की रक्षा में दूसरों के हितों पर उतना ही ध्यान रख सकें, अतः व्यक्ति के स्वयं के हितों की रक्षा के प्रयास में दूसरों के हितों का अतिक्रमण न हो, इस हेतु प्रशासन के एक विशिष्ट अंग "न्याय व्यवस्था" की प्रस्थापना हुई। इसके अंतर्गत समाज की सामुहिक आचार संहिता "कानन" की परिपालना न करने वालों को दंडित एवं प्रताड़ित करने का प्रावधान किया गया ताकि समाज व्यवस्था संतुलित एवं सुचारुरूप से रह सके एवं समाज का प्रत्येक सदस्य अपने व्यक्तित्व, संपत्ति, भावनाओं व वृत्तियों को सुरक्षित रखकर अन्य लोगों के साथ सामंजस्य पूर्वक रह सके व समाज में शांति व सुख बना रहे। ___ भारत में अनेक धर्मसंस्थाएं हैं व उन्होंने अपने अलग-अलग धर्माचरण के नियमोपनियम बना रखे हैं। हालांकि सबका आधार अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि ही हैं, पर उन सबका विवेचन क नहीं है। इस निबंध में मैं केवल जैन धर्म द्वारा प्रणीत आचार संहिता एवं कानून की धाराओं में कर यह बताने का प्रयास करूंगा कि उनमें अद्भुत एकरूपता एवं साम्य है व हर स्थिति में वे एक दूसरे के पूरक अवश्य है। जैन धर्माचरण का वर्तमान स्वरूप भगवान महावीर की अनुभूत एवं शाश्वत सत्य से प्रेरित वाणी है, जो विगत गों से जन-चेतना को जागृत करती रही है । जैन धर्म के सभी संप्रदायों में सामाजिक लोगों की आचारसंहिता का स्वरूप एक ही प्रकार का है व सुस्थिर है। भगवान महावीर ने व्यक्ति एवं समाज के परिष्कार हेतु अहिंसा, सत्य, अचोयं, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह के आधार पर कुछ मूलभूत नियमों का प्रणयन किया । भगवान् ने, उन लोगों के लिये जो संसार की सारी प्रवृत्तियों से विरत होकर मात्र आत्मलक्षी बनाना चाहते हों, “अनागार धर्म" का विधान किया, जिसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की मन, वचन व शरीर से सर्वांश परिपालना करने का निर्देश दिया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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