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________________ ई० सन् १९६९में उन्होंने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' शीर्षक शोध-प्रबन्ध लिखकर काशी विश्वविद्यालयसे सम्मानजनक पी-एच० डी० की उपाधि भी प्राप्त की है । यह महत्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध वीर- . सेवा-मन्दिर-ट्रष्टसे प्रकाशित हो चुका है । कोठियाके रूप में प्रसिद्धि गोलापूर्व जातिमें ५७ गोत्रोंके अन्तर्गत एक कोठिया नामका गोत्र है । जिस प्रकार अनेक लोगोंके नामोंके साथ उनके गोत्रका--जैसे गोयलीय, गर्ग, संगल, मित्तल, गंगवाल, कासलीवाल आदिका उल्लेख रहता है, उसी प्रकार डॉ० दरबारीलालजीको भी अपने नामके साथ गोत्रका उल्लेख करना अभीष्ट दिखा । तदनुसार वे अपने नामके आगे कोठिया लिखते हैं । उनकी प्रसिद्धि नामकी अपेक्षा भी कहीं कोठियाके रूपमें अधिक हई है। यद्यपि इस गोत्र के कई परिवार हैं, जो भिन्न-भिन्न स्थानोंमें रहते हैं फिर भी उससे डॉ. दरबारीलालजीको ही अधिक जाना जाता है, यह उनका उपनाम बन गया है। गृहस्थ-जीवन ___डॉ० दरबारीलालजी कोठियाका विवाह छिंदवाड़ा (म० प्र०) निवासी स्व० बाबू खुशालचन्दजीकी द्वितीय पत्री चमेलीदेवीके साथ १ मई १९३६को सम्पन्न हआ था। बाबू खुशालचन्द पटोरिया प्रतिष्ठित सरकारी ऑवकारी ऑफिसर रहे हैं, समाजमें भी उन्होंने अच्छी प्रतिष्ठा पायी। उनके ज्येष्ठ पत्र बाबू रतनचन्दजी पटोरिया असिस्टेन्ट कमिश्नर रहे हैं। वर्तमानमें वे सेवानिवृत होकर दुर्ग (म०प्र०) में रह रहे हैं । उनके पुत्र भी डॉक्टर, इंजीनियर आदि होकर विभिन्न स्थानों पर कार्यरत है। डॉ० कोठियाकी धर्मपत्नी सौ० चमेली देवीने तीन संतानोंको जन्म दिया, पर वे अधिक समय जीवित नहीं रहीं, कुछ महीनोंमें ही स्वर्गस्थ हो गयीं। संतानके न होने पर भी वे अन्य बच्चोंसे अपनी संतानकी अपेक्षा भी अधिक प्यार करते हैं। उन्हें उसके लिए कभी क्लेशका अनुभव नहीं हआ। पतिपत्नीकी वृत्ति भी अधिक उदारतापूर्ण है। वाराणसी में उनका निजी मकान है। उसमें ऊपर वे स्वयं रहते हैं व नीचेका भाग किराये पर दिये हुए है । इस किरायेकी आयके साथ पेंशनके रूपमें जो प्राप्त होता है उसीपर प्रसन्नतापूर्वक अपना कार्य चलाते हैं। इतना ही नहीं, जब वे सेवानिरत थे तब भी वे अनेक होनहार विद्यार्थियोंको छात्रवृत्ति के रूप में तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं-जैसे तीर्थक्षेत्र कमेटी आदि-को सहायता करते रहे हैं, पर अब जब सीमित आय रह गयी है तब भी वे उसमेंसे कुछ न कुछ देते ही रहते हैं । प्रसन्नताकी बात यह है कि सौ० चमेली देवीकी भी वृत्ति उसी प्रकारकी है । वे सुशिक्षिता धार्मिक महिला हैं। धर्मपर दोनोंकी आस्था है, सीधा-सादा निश्छल जीवन है, लोकदिखावा कुछ नहीं है। यही कारण है जो वे अब तक दानके रूपमें लगभग ३०, ३५ हजार दे चुके हैं । समाज-सेवा सामाजिक कार्यों में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। इसके लिए वे समय और अपने स्वास्थ्यकी और भी ध्यान नहीं देते । विविध प्रकारके सामाजिक कार्यों में भाग लेने के लिए वे बाहर जाते ही रहते हैं। ऐसे कार्यों में समय और शक्तिका व्यय करते हुए उन्होंने उनके उपलक्षमें कभी किसी भी प्रकारकी भेंट नहीं ली । इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वहाँ जाकर अपनी ओरसे कुछ दानके रूप में देकर ही आते हैं। संस्था-संचालनकी अद्भुत क्षमता उन्होंने अनेक सार्वजनिक संस्थाओंके उत्तरदायित्वको स्वीकार कर उसका निर्वाह बडी लगन और कुशलताके साथ किया है । जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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