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________________ उच्च शिक्षा प्राप्त करने की भावनासे अपनी आन्तरिक अभिलाषा अपने स्नेही मामासे प्रगट की। मामा स्नेहके वश बालकको कही बाहर नहीं भेजना चाहते थे। पर अन्त में बालककी प्रबल इच्छाको देखकर उसके कोमल हृदयको ठेस न पहुँचे, इस सद्भावनासे उन्होंने उसे अन्यत्र कहीं दूर न भेजकर पास ही साढूमल, ललितपुरके महावीर जैन विद्यालयमें भरती करा दिया। साढूमल सोरईसे लगभग ६ मील दूर है। इस विद्यालयमें प्रविष्ट होकर दरबारीलालने ई० सन् १९२७-३० तक वहाँ अध्ययन करते हुए विशारद प्रथम खण्ड तक शिक्षा प्राप्त की। साथ ही क्वींस कालेज (वर्तमानमें सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय) बनारस की प्रथमा और कलकत्ताकी व्याकरण प्रथमा भी उत्तीर्ण कर ली। अब तो दरबारीलालकी वह उच्च कोटिके विद्वान बनने की भावना प्रबल हो उठी थी। इससे वे मामासे अनुनय-विनयपूर्वक अनुज्ञा लेकर जुलाई १९३० में बनारस जाकर वहाँ स्याद्वाद महाविद्यालयमें प्रविष्ट हो गये । वहाँ अध्ययन करते हुए वे सन् १९३७ तक बनारस रहे । वहाँसे उन्होंने शेष विशारद, सिद्धान्तशास्त्री, नव्यन्याय मध्यमा, प्राचीनन्यायशास्त्री, दि० जैन न्यायतीर्थ, न्यायाचार्यका प्रथम खण्ड और जैन दर्शन में शास्त्राचार्यके प्रथम व द्वितीय खण्ड भी उत्तीर्ग कर लिये। कार्यक्षेत्रमें प्रवेशहेतु योग्य आदर्श विद्वान् बननेकी उक्त भावनाको हृदयंगम करते हुए कुछ कार्य करना भी ठीक समझा । तदनुसार वे बनारस छोड़कर वीर विद्यालय पपौरा (टीकमगढ़) में अध्यापन कार्य करने लगे। इस विद्यालयमें उन्होंने १९३७-४० तक अध्यापन कार्य किया। इस बीच उनका स्वयंका शेष अध्ययन भी अविश्रान्त चलता रहा । फलस्वरूप उन्होंने सन् १९४० में सम्पूर्ण न्यायाचार्यकी परीक्षा उत्तीर्ण कर ली । पश्चात् वे पपौरासे मथुरा चले गये और वहाँ अगस्त १९४० से अप्रैल १९४२ तक ऋषभ ब्रह्म. चर्याश्रममें प्रधानाचार्यके पदपर प्रतिष्ठित रहे । इसके बाद वे सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता आचार्य जगलकिशोर जी मख्तारके मार्गदर्शन में अनुसंधान व साहित्यिक संशोधनकार्य करनेकी इच्छासे वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा (सहारनपुर) चले गये। वहाँ वे अप्रैल १९४२-५० तक इस कार्य में संलग्न रहे। इस बीच उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण शोधनिबन्ध लिखे, जो यथासमय अनेकान्त और जैनसिद्धान्त भास्कर आदि जैसे शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे । तथा न्यादीपिका, आप्तपरीक्षा आदि कई ग्रन्थोंका आधनिक पद्धतिसे सम्पादन एवं हिन्दी रूपान्तर किया, जो वीर-सेवा-मन्दिरसे प्रकाशित हुए। तदन्तर वे दिल्लीके समन्तभद्र संस्कृत-विद्यालयमें प्राचार्यके पदपर चले गये । वहाँ कार्य करते हुए उन्होंने कितने ही छात्रोंको प्रोत्साहित कर उन्हें सुशिक्षित किया व न्यायतीर्थ जैसी ऊँची परीक्षायें दिलायीं। इसपद पर वे वहाँ जन १९५० से नवम्बर १९५७ तक कार्य करते रहे। इस बीच उन्होंने सन् १९५५ में शास्त्राचार्य और १९५७में एम० ए० की परीक्षा भी पास कर ली। इसके बाद वे दि० जैन कालेज बड़ौत (मेरठ) में संस्कृतके प्राध्यापक होकर वहाँ चले गये और वहाँ १६ नवम्बर सन् १९५७से ३० अगस्त १९६० तक रहे । तत्पश्चात् वे काशी हिन्दू विश्व विद्यालय वाराणसी में जैन दर्शनके प्राध्यापक नियुक्त हुए। इस पदपर वे ३१ अगस्त १९६० से २७ अगस्त १९६९ तक प्रतिष्ठित रहे। बादमें वहींपर पदोन्नति होकर वे जैन-बौद्ध दनके आचार्य (रीडर) हो गये । इस पद पर वे २८ अगस्त १९६९से ८ जुलाई १९७४ तक कार्यरत रहे । अन्त में सेवानिवृत होकर उन्होंने फिर कहीं अन्यत्र कुछ कार्य करना उचित नहीं समझा। -४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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