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________________ ४. १. वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट, वाराणसी-यह लोकोपकारी साहित्यिक संस्था सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता स्व. आचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारके द्वारा स्थापित की गई थी। मेरे पीछे भी इस संस्थाके द्वारा इतिहास व साहित्य संशोधनका महत्वपूर्ण कार्य बराबर चलता रहे, इस विचारसे उन्होंने सन् १९६०में अपना उत्तराधिकारी धर्मपुत्रके रूप में डा० कोठियाको बनाया था। प्रसन्नताकी बात है कि उन्होंने उसका निर्वाह बड़ी कुशलतापूर्वक किया है, कर रहे हैं । इस ट्रस्टसे अब तक महत्वपूर्ण २२ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है । २. वर्णी जैन ग्रन्थ-माला-इस संस्थाके मंत्री रहते हुए डा० दरबारीलालजीने उसे काफी समुन्नत किया है। अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंका प्रकाशन इस ग्रन्थमालासे किया तथा कुछके द्वितीय, तृतीय संस्करण भी निकाले । .. ३. वि० जैन विद्वत्परिषद्-डा. कोठियाने अपने अध्यक्षताकालमें इस संस्थाकी महान सेवा की है। भगवान महावीरके २५०० वें निर्वाण-महोत्सवके समय परिषदकी कार्यकारिणीने 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' नामक ग्रन्थके प्रकाशनका निर्णय किया था। निर्णय तो सहज में कर लिया गया, पर इतने विशाल ग्रन्थके लेखन व उसके प्रकाशनके लिए उपयुक्त अर्थका संग्रह कहाँसे किस प्रकार होगा, यह यह कठिन समस्या बन गयी थी। प्रसन्नताकी बात है कि उसके लेखनकार्यका दायित्व स्व. डा. नेमीचन्द जी ज्योतिषाचार्य, आरा (तत्कालीन अध्यक्ष) ने अपने ऊपर ले लिया। उसके निर्वाहके लिए जो उन्होंने लगभग ४-५ वर्ष अथक परिश्रम किया है वह आश्चर्यजनक व स्तुत्य है। उनकी संलग्नता व अविश्रान्त परिश्रमके कारण वह महान ग्रन्थ तैयार हो गया। किन्तु खेद है कि उसके प्रकाशित होनेके पूर्व ही वे काल-कवलित हो गये व अपनी उस कृतिको प्रकाशित रूपमें नहीं देख सके। उधर दूसरी समस्या उसके लिये पर्याप्त धनके संग्रहकी थी । कारण यह कि विद्धत्परिषदके पास तो इतना पैसा नहीं था कि जिसके आश्रयसे इतने विशाल ग्रन्थका मुद्रणादि कार्य सम्पन्न किया जा सके । तब डा० कोठियाने सबको आश्वस्त करते हुए उसके लिये अपनी कमर कसी। इसके लिये उन्होंने कितने ही नगरों और ग्रामों में जाकर १००, ५० व २५ आदि प्रतियोंके अग्रिम ग्राहक बनाये । इस तरह मद्रण आदिकी कष्टसाध्य आर्थिक-समस्याओंको हलकर उसके प्रफरीडिंग, सम्पादन आदि कितने ही अन्य कार्योंको भी निःस्पृह भावसे उन्होंने स्वयं किया। इस प्रकार लगनशील इन दो महानुभावोंकी तत्परता और अविश्रान्त परिश्रमसे वह विशाल ग्रन्थ आकर्षक रूपमें और चार भागोंमें प्रकाशित हो गया। इसके अतिरिक्त परिषदके अध्यक्ष रहते हए उसके अन्तर्गत एक फण्ड स्थापित कर उसके लिए उन्होंने महावीर-विद्यानिधिके नामसे कुछ अर्थका संग्रह किया, जिसके माध्यमसे प्रति वर्ष २-४ छात्रोंको छात्रवत्ति या विद्वानोंको सहायता दी जा रही है। इस प्रकार अनेक महत्त्वपूर्ण कार्योंको करके उन्होंने विद्वत्परिषदकी चिरस्मरणीय सेवा की है। इन तीन संस्थाओंकी सेवाके साथ उन्होंने अन्य भी कितनी ही संस्थाओंकी किसी न किसी रूपमें उल्लेखनीय सेवा की है व आज भी कर रहे हैं । यथा-४. स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, उपअधिष्ठाता, ५. वर्णी संस्थान, वाराणसी (मन्त्री), ६. दि० जैन अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी (उपाध्यक्ष), ७. विहार प्रान्तीय तीर्थक्षेत्र कमेटी (सदस्य), ८. प्राकृत जैन शोध संस्थान, वैशाली (सदस्य), ९. जैन समाज, काशी (उपाध्यक्ष), १०. सन्मति जैन निकेतन, वाराणसी (उपाध्यक्ष), ११. महावीर निर्वाण भूमि पावानगर उपाध्यक्ष , जैन सन्देश मथुरा (सह सम्पादक) अनेकान्त, दिल्ली (सहसम्पादक) 'और जैन प्रचारक दिल्ली (सम्पादक) आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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