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________________ स्मरणीय पूज्य वर्णीजी अपवाद स्वरूप हैं ? उनका परोक्ष कटाक्ष स्पष्टतः डा० कोठियाजीपर ही था । हम तो— "खतका मजमू भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर " !! बस फिर क्या था ? तीनों ही उनपर टूट पड़े । बीचमें ही टोकते हुए पं० कमलकुमार शास्त्री 'कुमुद' बोल पड़े : "न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि बाह्य ज्ञानसे अबद्ध-स्पृष्ट आत्मा कमल-पत्र सदृश जलको किञ्चिन्मात्र भी नहीं छूता ।" पं० फूलचन्द शास्त्री 'पुष्पेन्दु' ने कहा 'प्रमाण- ज्ञान अर्थात् प्रामाणिक ज्ञान, सम्यग्ज्ञान ही होता है । द्रव्यदृष्टि प्राप्त करने के बाद सम्पूर्ण मति श्रुत ज्ञान समीचीन हो जाता है । प्रमाण ज्ञान वस्तुका निर्णय करने में सद्भूतात्मक व्यावहारिक मर्यादा निभाता है । द्रव्यदृष्टि प्राप्त करनेके पूर्व और पश्चात् भी उसकी उपादेयता बनी ही रहती है ।' वैद्य बाबूलाल आयुर्वेदशास्त्री बोले— "डा० कोठियाजी न्यायाचार्य हैं । वे स्याद्वादमुद्राङ्कित सर्वज्ञ शासन के अधिवक्ता हैं । जब एक सामान्य वकील भी अपनी योग्यतासे न्यायाधीशके पदपर प्रतिष्ठित हो जाता है तो दे आध्यात्मिक क्यों नहीं हो सकते ?" पं० कमलकुमार शास्त्री 'कुमुद' ने कहा वीतराग - सर्वज्ञ- हितोपदेशी ही सच्चा न्यायाधीश होता है । पं० फूलचन्द शास्त्री 'पुष्पेन्दु' बोले 'न्यायप्रिय, भेदविज्ञानी, विवेकी, अनुभवी व्यक्तिको ही सम्यग्दृष्टिकी संज्ञा है । हम सब अन्तरात्मा न्यायाधीश हैं | प्रमाण ज्ञानके न्यायालय में पर्यायदृष्टिको गौणकर द्रव्यदृष्टिसे देखोगे तो डा० कोठियाजी आपको न्यायाचार्यकी क्षणिकता में आसीन नहीं; बल्कि न्यायाधीशके आसनपर अधिष्ठित दिखाई देंगे । ( प्रतिभा संगम - परिचर्चा संगोष्ठी डायरीसे उद्धृत ) ।' एक जागरूक व्यक्तित्व ब्र० पं० भुवनेन्द्रकुमार वर्णी, शास्त्री, व्रती आश्रम मढ़ियाजी, जबलपुर शान्त, गम्भीर, प्रसन्नमुद्रा, मुस्कराता चेहरा, मित-मिष्ठभाषी सदा चिन्तनरत, बस, यही एक कोठियाजीका परिचय है। जब भी समाज या विद्वानोंके समूहमें कोठियाजीको पहचानना हो तो उक्त लक्षण देखकर बिना किसी ऊहापोहके आप श्री कोठियाजीको पहचान लेंगे । श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार कठोर जैन साहित्य-साधक और महान श्रमशील पुरुष थे और उनकी प्रकृतिका व्यक्ति ही उनके पास निभ सकता था । इस कार्य में कोठियाजी शत-प्रतिशत खरे उतरे और जबतक वे वीर-सेवा- मन्दिर में रहे तब तक उन्होंने ईमानदारी के साथ इस कार्यका निर्वाह किया। चाहे इसके लिये उन्हें सब कुछ त्याग करना पड़ा । उसी आधारपर अन्वेषण कार्य में आपने अधिकारित्व भी प्राप्त किया। अपनी विद्वत्ता और योग्यताके बलपर काशी विश्वविद्यालय में जैन-बौद्ध दर्शनके प्रवक्ता व रीडरके पदका कार्य भी निभा सके । मुझे स्मरण है कि जब मैं बीना - इटावा में विद्यालय में अध्यापन कार्य में रत था, तो आदरणीय पं० नाथूरामजी प्रेम बम्बई, वीर - सेवा मन्दिर सरसावासे लौटते हुए बीना रुके थे । उनसे चर्चा के दौरान उस समय प्रेमीजी ने भी श्री कोठियाजीकी ग भीरता एवं अनुशासनप्रियता की प्रशंसा की थी। इसीके फलस्वरूप श्री कोठियाजी मुख्तार सा० के उत्तराधिकारी स्वयं मुख्तार सा० द्वारा घोषित किये गये थे । Jain Education International - ३७ - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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