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________________ न्यायाचार्यों में अन्तिम कड़ी श्री कोठियाजी • डॉ० कन्छेदीलाल जैन, शहडोल न्यायाचार्यको उपाधि प्राप्त करनेवाले मेरी जानकारीमें मात्र चार विद्वान् हुए हैं। श्री गणेशप्रसाद वर्णी, श्री पं० माणिकचन्दजी कौन्देय, श्री पं० महेन्द्रकुमारजी एवं श्री पं० दरवारीलालजी कोठिया । इन विद्वानोंकी विशेषता यह है कि इन्होंने इस महत्त्वपूर्ण और दुरूह न्याय-विषयकी उपाधि और विद्वत्ताका उपयोग जैनधर्म, दर्शन और न्यायके क्षेत्र में इस प्रकार किया. जिससे दर्शन, न्याय और धर्म विषयक ग्रन्थोंके लेखन, सम्पादन, अनुवादका कार्य हुआ। डा० दरबारीलालजी कोठियाने भी कठिन विषय जैन न्याय एवं दर्शनके लेखन, सम्पादन, प्रकाशनका कार्य किया और अब भी कर रहे हैं। जिस समय मैंने न्यायप्रथमाकी परीक्षा दी थी तथा विशारदमें न्यायदीपिका, प्रमेयरत्नमाला, आप्तपरीक्षा ग्रन्थ पढ़ता था, उस समय श्री पं० दरबारीलालजी कोठियाकी न्यायदीपिका और आप्तपरीक्षाकी हिन्दी टीकाओंसे न्यायकी परीक्षाकी सरलतासे तैयारी की थी। उक्त ग्रन्थोंकी पक्तियाँ लगानेके लिए श्री कोठियाजीकी टीकाएँ बड़ा सहारा देती थीं। डा० कोठियाजी उच्च उपाधि प्राप्त विद्वान् होकर भी, छोटी-सी पाठशालामें काम प्रारम्भ करके क्रमशः उन्नति करते हुए विश्वविद्यालयके रीडरपद तक पहुँचे । यह उनके निरन्तर पुरुषार्थ एवं लगनका सुफल है। श्री कोठियाने न्यायके ग्रन्थोंका सरल एवं सुबोध अनुवाद किया तथा उनकी विद्वत्तापूर्ण एवं विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी हैं । साथमें मौलिक एवं समीक्षणपद्धतिके ग्रन्थोंका भी प्रणयन किया। 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार' और 'जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' ऐसे ही महनीय ग्रन्थ हैं। कोठियाजीके बाद किसी जैन विद्वान्ने न्यायाचार्यकी परीक्षा नहीं दी, न संस्थाओंने ही विशेष प्रोत्साहन उसके लिये दिया। डा० कोठिया न्यायाचार्य-विद्वानोंकी अन्तिम कड़ी हैं । वे चिरायु हों और स्वस्थ रहते हुए सरस्वतीकी साधनामें सतत संलग्न रहें, यही हार्दिक भावना है । वे न्यायाचार्य तो हैं ही, न्यायाधीश भी हैं : एक रोचक संस्मरण •प्रस्तोता-चौ० कोमलचंद मृदुल, अध्यक्ष-प्रतिभा-संगम, खुरई खुरई नगरमें एक विशुद्ध साहित्यिक प्रतिष्ठान "प्रतिभा-संगम" के श्रुति मधुर नामसे सुसंचालित है। इसके अन्तर्गत बहुधा परिचर्चा-संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती है । एक संगोष्ठी में परिचर्चाका विषय था-"प्रमाण-पत्र और उपाधियाँ" चूँकि प्रासंगिक विषय अत्यन्त रोचक था, अतएव समस्या स्थापनके समानान्तर ही उनके सटीक एवं सतर्क समाधान भी प्रस्तुत किये जा रहे थे। अन्ततः चर्चा उपाधियों तथा प्रमाण-पत्रोंसे बिछुड़ कर व्यक्तिविशेषोंसे चिपट गई और उसकी परोक्ष सत्ताके केन्द्र-बिन्दु अनायास हो बन गएसम्मान्य डा० न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी कोठिया बात वैयक्तिक तथा अप्रासंगिक हो रही थी, इसलिए तत्रस्थ विद्यमान विद्वान पक्षधरोंने उस समय जो भावपूर्ण श्रद्धोद्गार श्रीमान् सम्मान्य डा० कोठियाजीके विषय में सूत्ररूपेण व्यक्त किये, वे अक्षरशः यहाँ उद्धृत हैं "जो व्यक्ति नामों-उपनामों अथवा समाज-शासन प्रदत्त प्रमाणपत्रों एवं विद्योपाधियोंके आडम्बरसे लदे फिरते है वे प्रायः आध्यात्मिक नहीं हो पाते । फलतः विद्वत्ता उन्हें ले डूबती है। इस प्रकरणमें प्रातः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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