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________________ एक सहृदय विद्वान् •प्राचार्य कुन्दनलाल जैन, शाहदरा, दिल्ली विद्वान होना सामान्य बात है। पर विद्वत्ताके साथ-साथ मानवीय गुणोंसे ओत-प्रोत सहृदयता एवं मानवता विरले ही विद्वानोंमें पाई जाती है ! कोठियाजी जैसे सहृदय विद्वान् विरले ही मिला करते हैं । सन् १९४६ में जब मैं स्याद्वाद विद्यालय छोड़कर गृहस्थीके फंदेमें फाँस दिया गया तो सबसे बड़ी जटिल समस्या जो सामने आई वह थी आजीविकाकी, स्वभावसे संकोची होनेके कारण किसीसे कुछ कहता सुनता भी न था। घरको आर्थिक स्थिति विषमतम थी। श्री कोठियाजीके चाचा पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीनामें विद्यमान हैं । यही नगर मेरी जन्मभूमि एवं घर है। फिर भी व्याकरणाचार्यजीसे मैं तब तक भी कभी मिला होऊँ, ऐसा याद नहीं आता है। पर अब शादीके बाद एवं पूज्य मामा पं० मनोहरलालजी कुरवाईके आदेशसे मैं व्याकरणाचार्यजीके पास गया और उनसे अपनी समस्या कह सुनाई ! इसी समय श्री कोठियाजी बीना पधारे हए थे ग्रीष्मावकाश बितानेके लिए । इन दिनों श्री कोठियाजी वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावामें स्व० श्री बा० जुगलकिशोरजी मुख्तार सा० के साथ साहित्य-सृजन कर रहे थे । और वे उनके परम सहयोगी रहे । आगे चलकर उनके वे धर्म पुत्र भी बने । वीर-सेवा-मन्दिरके लिए एक व्यक्तिको आवश्यकता थी, व्याकरणाचार्यजीने श्री कोठियाजीसे मेरे सम्बन्धमें चर्चा की और श्री कोठियाजीने मुख्तार सा० को पत्र लिखा और मेरी नियुक्तिको स्वीकृति माँग ली और लगभग १५ मई १९४६ को वे मुझे अपने साथ सरसावा लिवा ले गये और मेरी नियुक्ति वीरसेवा-मंदिरमें पचपन रुपये मासिकपर करा दी । इस तरह वे मेरी प्रथम आजीविकाके स्रोत बने । यद्यपि इस समय तक मेरी शिक्षा साहित्य शास्त्री और मेट्रिक तक ही थी अतः वी०से०म० जैसी साहित्यिक शोध-संस्थाका पात्र कैसे बन सकता था। अतः श्री कोठियाजीने मुझे कुछ खोजपरक लेख लिखनेके लिए प्रेरित किया और कुछ सामग्री तथा शोधके तरीके समझाए और मैं लेख लिखने लगा, जो तत्कालीन जैन मित्र, जैन संदेश, वीर आदि पत्रोंमें प्रकाशित होने लगे। श्री कोठियाजीकी प्रेरणाका ही फल है कि अपने अध्ययन में लगा रहा और शोधकार्यकी ओर प्रवृत्त हुआ। यद्यपि मैं उस समय बिल्कूल ही नौसिखिया था। पर कोठियाजी मुझे आगे बढ़ानेके लिए समाजके लोगोंके घर ले जाते, मंदिरमें शास्त्र-स्वाध्यायके लिए बैठाते और शास्त्रचर्चा में सम्मिलित करते । श्री कोठियाजीका व्यवहार बड़ा ही मधुर और स्नेहप्रिय है और अतिथिसत्कारके लिए तो वे बहुत ही प्रसिद्ध हैं। श्री कोठियाजी अपनी विद्वत्ता एवं विनम्र स्वभावके कारण जैन समाजमें सम्माननीय तो हैं ही, विद्वद्वर्गमें भी अपना ऊंचा स्थान बनाये हुए हैं । श्री कोठियाजी विद्वद्वर्गकी उस पीढीका प्रतिनिधित्व करते हैं जो शास्त्रीय शिक्षणके साथ-साथ कालेजीय व विश्वविद्यालयीय शिक्षणमें पारंगत होते है। वे अपने इसी उभयपक्षीय गंभीर अध्ययनके कारण पुराने विद्वानों एवं नई पीढ़ीके विद्वानोंके समन्वयमें बीचकी कड़ीका काम करते हैं। उनके सम्पर्क में जो भी आता, उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता, यही उनकी विशेषता है । उनके अभिनन्दनके समय में अपनी ओरसे हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं और वीर प्रभुसे उनके चिरायु रहनेकी कामना करता हूँ। - १९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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