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________________ मेरी सहगामिनी थी, बसेरेपर चलनेका आग्रह किया । सम्भवतः उस सम्यधर्म के पर्यावरण में आवश्यकी आवश्यकतायें नीड़में लौटने को विवश कर रही थीं । मैंने रात्रि - कार्यक्रमोंमें भाग लेने हेतु यथाशीघ्र लौटने का आश्वासन देकर समाहर्ताओंसे विदा माँगी । खमेमें लौट रहा था । पार्श्व के चौकसे कुछ मोड़ है, भीड़ में पत्नी न भटक जाये, वाहन तक पहुँचने के रास्ते तक मैं पत्नीका हाथ थामे हुए था । धीमी गति से चला जा रहा था, तभी पीछेसे किसीने मेरे कंधेपर हाथ रखा और मुझे रोकते हुए कहा - "ऐसे ही चले जाओगे बेटा, तुम्हें देखकर मैं कबसे तुमसे बात करनेको लालायित हो रहा हूँ ।" अनजान स्थलमें मेरे प्रति बेटा शब्दका सम्बोधन सुन मेरे पाँव बरबस ही रुक गये। मैंने मुड़कर देखा । एक अधेड़ मुखाकृति, जिज्ञासु भावोंसे मेरे परिचयात्मक तन्तुओंको उत्तेजित कर रही थी । पुनः उन्होंने दोहराया - " मुझे पहचाना बेटे तुमने, मैं तुम्हारे पिता स्व० पं० सिद्धिसागरजी प्राणाचार्यका पुराना सत्संगी और स्व० पं० परमेष्ठीदासजीका मित्र हूँ ।" वह अविस्मरणीय क्षण, जब मेरी जिज्ञासामयी आँखें विस्मारिकाकी दूरी तय कर उस आदर्श पुञ्जपर टिकी थी । देदीप्यमान मुखाकृतिपर काली फ्रेमका चश्मा, ज्ञानमयी आँखों में ज्ञान दर्शन हेतु पारदर्शी बन रहा था । ज्ञान और पुरुषार्थके समन्वित दर्शनको किचित् भी पहिचानने में विलम्ब नहीं लगा । अरे यह तो हमारे पूज्य डॉ० दरबारीलाल कोठियाजी हैं । जिनकी जैन दर्शन में स्याद्वादकी विवेचनायें जैन समाजकी नई पीढ़ी में नया परिवर्तन ला रही हैं, उस विद्यावाचस्पतिका सान्निध्य पानेको अनेकों बार लालसा जाग्रत हुई, किन्तु गृहस्थधर्म के दावपेचोंमें ऐसा संयोग न बन पाया कि कभी पं० कोठियाजीके सान्निध्य में समय बिता सकूँ । नगरमें अथवा अन्य स्थानोंपर जब कभी सभा - गोष्ठियों में समाज में फैली कुरीतियोंको चर्चा उठती तब-तब श्री कोठियाजी के अनुभव व संस्मरणोंकी चर्चा वहाँ उठाकर उन्हें समाजको अगुआई करनेके लिए बल दिया जाता । उस ज्ञानके धनीभूत व्यक्तित्वका प्रेममयी मर्मस्पर्शी सम्बोधन सुनकर मैं रोम - हर्षित हो गया । श्रद्धाभावसे मैं उनके चरणों में झुका कि उन्होंने अंकमें समेट लिया । बोले - “पहिचान गये बाहुबलि कुमार, तुमको तो क्या कहूँ । सिद्धिसागरजीने कहीं प्राणोंमें आत्मदर्शन दिये हैं तो उसका साक्षात् स्वरूप तुममें देख रहा हूँ ।" मैंने आत्मविभोर हो कहा - " अपने पितातुल्य, पिताके सखाको क्यों न पहिचानूं । अपितु लगता है कि पिताजीके सहज ज्ञानकी प्रेरणाका स्थूल स्वरूप सामने है, ऐसा कहूँ तो इस कथनमें कहीं भी अत्युक्ति नहीं है ।" अरुणाजीने भी उन्हें नमन किया । दम्पति-परिचयके पश्चात् उनके आशीर्वचनोंमें उन्होंने हमारे हरियाले भविष्य दर्शनकी कामना की। उन्होंने ललितपुरके क्षेत्रीय परिचित लोगोंका हाल पूछा और बालपन में जैन विद्यालय सादूमल (ललितपुर) के अध्यापनकालके साथी श्री विजयसिंह बड़कुल, ननौरा (ललितपुर) का क्षेमसमाचार विशेषतया पूछा और बताया कि हमारे वे बालसखा हैं और छहढाला के सूक्त हमलोग साथ बैठकर रटा करते थे । स्व० पं० परमेष्ठीदासजीके तो उन्होंने रोचक संस्मरण सुनाये और बताया कि - " उनके चिर पयानसे तो मानवीय दृष्टिकोणका पक्ष प्रस्तुत करनेवाला एक बड़ा साथी चला गया ।" वे बोले कि समाजकी दशा कितनी विगलित हो रही है । हमारे ऋषभदेव तीर्थंकर, जिन्होंने समाजको तत्कालीन विषमताओंसे निकाल कर जीवनको सरलीकरण बनाने हेतु नया दर्शन दिया और हमलोग उन्होंने भूल कर अज्ञानता में भटक गये हैं । कुछ ही क्षणोंकी मुलाकात में सब कुछ ही कह डाला उन्होंने । भावोंके आदान-प्रदानके पश्चात् उन्होंने अपने तीर्थस्थलीय आवास में आनेका निमंत्रण दिया । श्रवणबेलगोला के रमणीक तीर्थस्थलपर हमारी - ८८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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