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________________ होकर उनके माध्यम से उनकी स्पृहणीय सेवा की है व कर रहें हैं। इस वृद्धावस्थामें भी उन्हें काम प्रिय है । कर्मठता उनका स्वभाव है । मेरा तथा मेरे परिवारका सौभाग्य है कि ऐसे विद्वान् और समाजसेवक सत्पुरुषकी समीपताका शैशवास्थासे ही सान्निध्य प्राप्त है । उनकी सहधर्मिणी उनके प्रशस्त जीवन-पथकी सम्बल हैं। दोनोंके शतायुः की कामना करता हुआ मैं और मेरा परिवार उनके अखिल भारतीय सामाजिक अभिनन्दनके सुअवसर पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है । विनम्रताकी साकार प्रतिमूर्ति डॉ० सागरमल जैन निदेशक पार्श्वनाथ विद्याश्रम - शोध संस्थान, वाराणसी डॉ० पं० दरबारीलालजी कोठियाका जैन न्यायके परम्परागत पण्डितोंमें मूर्धन्य स्थान है । विद्वान् तो वे हैं ही किन्तु मेरी दृष्टिमें उनके व्यक्तित्वका सबसे उज्ज्वल पक्ष है, उनकी विनम्रता, उनका व्यवहार माधुर्य | सामान्यतया विद्वत्ताके साथ अहंकार भा जाता है किन्तु पण्डितजीका व्यवहार देखकर ऐसा लगता है, पाण्डित्यका अहंकार उन्हें छू भी नहीं सका है। पण्डितजी विनम्रताकी साकार प्रतिमूर्ति हैं । "विद्याददाति विनयं " की उक्ति उनके सन्बन्धमें शत-प्रतिशत सत्य है । मेरा पण्डितजीसे प्रथम परिचय तीन वर्ष पूर्व वाराणसी आगमनपर ही हुआ । उस दिनसे आज तक उनकी इस छबिमें मेरे मनमें कहीं कोई खरोंच नहीं आई । विचार-भेद भी हुआ, किन्तु मन-भेद नहीं हुआ । क्योंकि पण्डितजी जब भी मिले उतनी ही विनम्रता, सौजन्यता और आत्मीयतासे मिले, जैसे कोई अपने अतिप्रिय छोटे भाईसे मिलता हो । वे अपनी सज्जनता और शालीनतामें तो शत-प्रतिशत समभावी । शत्रु और मित्र दोनों व्यवहार में उनसे वही शालीनता, सौजन्यता एवं विनम्रता पाते हैं । यद्यपि पण्डितजीकी विनम्रता और सज्जनताका यह अर्थ नहीं है कि कोई भी उन्हें कहीं भी झुका ले । अपनी परम्परा, सिद्धान्त और निर्णयों के प्रति पण्डितजी उतने ही अधिक दृढ़ और अडिग हैं जितने वे व्यवहारमें मृदु हैं । उनके व्यक्तित्वका सम्यक् विश्लेषण निम्न उक्ति से हो सकता है - 'फूलोंसे कोमल; किन्तु वज्रसे अधिक कठोर ।' उनका अभिनन्दन वस्तुतः विद्वत्ता, सज्जनता और विनम्रताके सद्गुणोंका अभिनन्दन है । वे शतायुः होकर हम सभीको मार्ग-दर्शन करते रहें, यही मंगल कामना है । Jain Education International युगप्रणेता डा० कोठिया To बाहुबलि कुमार जैन, ललितपुर सन् १९८१ को वीतरागी भगवान् बाहुबलि स्वामीका सहस्राब्दि - महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हो रहा था । प्रक्षालित नीर-क्षीरसे समूचे स्थलपर प्रवाहिकायें वह निकली थीं । तपोमना धरती वीतरागीका चरणोदक पानकर कृतार्थ जैसी अनुभूति पर्यावरण में छोड़ रही थी । समूचा वातावरण समर्पण और त्यागमी अध्यात्मज्ञान विखेर रहा था। अपार जनसमुदायका यज्ञस्थली में जमाव, किन्तु भटकी इकाइयोंमें मुखरित आत्मज्ञान आत्माओंको एकाकार कर रहा था । सचमुच ही भगवान बाहुबलि जैसी आत्माओंने अवतीर्ण होकर आत्मोत्सर्गका नया मार्ग दर्शाया । प्रदोष काल था । भास्कर भगवान भी अपनी किरणोंका इन्द्रजाल समेटकर अस्ताचलको भाग रहे थे । पूज्य भट्टारक श्रीचारुकीर्ति स्वामीजीने मुझे विशिष्ट पत्रकार होने के नाते यज्ञस्थलपर वीक्षा दृष्टिपात बनाये रखने के लिए विशेष परिपत्र निर्गत किया था । इसलिये एक भिन्न दृष्टिकोण से भी उस मेले में अनुमन्य उपस्थिति थी । धर्मपत्नी डा० अरुणाजीने, जो मेलेमें ८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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