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________________ उनकी मुझपर गहरी छाप श्री इन्द्रजीत जैन एडवोकेट, कानपुर मैं डॉ० दरबारीलालजी कोठियाके जितना निकट सम्पर्क में आता गया, उतना ही मेरे ऊपर उनके पाण्डित्य, विद्वत्ता, सरलता और सौजन्यताकी छाप गहरी होती गई। आदरणीय डॉ० साहबसे मेरा अत्यन्त निकटका सम्बन्ध सात-आठ वर्ष पूर्व, जब वे दशलक्षण पर्वपर कानपुर पधारे । मेरे सौभाग्यसे वे मेरे निवासपर ही उन ग्यारह-बारह दिनोंमें रहे । मुझे आदरणीय डा० साहबकी बहुत-सी कृतियाँ देखनेका शुभ-अवसर प्राप्त हुआ है । अत्यन्त दुरुह ग्रन्थोंको रोचक बनाकर लिखना यह उनकी विशेषता है। 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशिलन' ग्रन्थको भेंट करते हुए उन्होंने मुझे यही कहा था कि 'वकील साहब, यह न्यायका गूढ़ ग्रन्थ है; किन्तु आपकी अध्यात्ममें कुछ पहुँच है, इसलिए यह आपके कुछ तो समझमें आयेगा ही।' उनका अभिनन्दन करने हेतु अभिनन्दन-ग्रन्थ-प्रकाशन समितिने अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशित करने का जो संकल्प लिया है वह अत्यन्त सराहनीय है । मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि डॉ० कोठिया समाज और धर्मकी इसी प्रकारसे सेवा करते हए शतायुः हों। निस्पृह साहित्य-समाज सेवक श्री जीवन कुमार सिंघई, सागर डॉ० कोठिया ऐसे निस्पृह साहित्य-समाज सेवक हैं जिनकी तुलनाके बिरल लोग मिलेगें । वे सहृदय व भावक व्यक्ति हैं । उन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह व अनेकान्तकी त्रिवेणीमें अवगाहन किया है। पर-दुःखकातरता तो उनका स्वभाव है। उन्होंने जीवनमें स्वयं दुःखों और कष्टोंको भोगा है। इसलिए दुःख में पड़े व्यक्तिको सहायता करने के लिए तत्पर रहते हैं। धनको उन्होंने जीवनका साधन माना है, साध्य नहीं । तभी तो वे धनका सदुपयोग करना खूब जानते हैं । उनकी निजी व पारिवारिक आवश्यकताएँ सीमित हैं । शद्ध भोजन, स्वच्छ व साधा परिवेश उनकी आवश्यकताएँ हैं। जैन धर्मके मर्मको उन्होंसे जीवनमें उतारा है। उनकी दृष्टि निर्मल व निस्पक्ष तथा हृदय उदार व विशाल है। वे विद्वानोंमें सहज उपलब्ध होनेवाले मात्सर्य दोषसे रहित सरल, स्नेही व उदारमना है। डॉ० कोठियाके व्यक्तित्वका दूसरा पक्ष उनके पाण्डित्यका है । उनके लेख, ग्रन्थ और शोधपत्र ठोस होते हैं। वे गहन चिन्तन और पूर्व व निस्पक्ष जाँचके बिना किसी तथ्यको प्रकट नहीं करते । हर शब्दकी उपयोगिता व आवश्यकताको तौलते हैं। उनका सम्पादित, अन दित और रचित ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण शोधग्रन्थ होता है, जो आने वाली पीढ़ीके लिए उपकारक है। हर ग्रन्थके साथ शोधपूर्ण भूमिका है, जो उसकी पूर्णताको प्रदान करती है। उनकी लेखनीका लोहा विद्वानोंने भी स्वीकार किया है। निःसन्देह वे मूर्धन्य विद्वान् हैं। लेखनके अतिरिक्त भी उन्होंने प्रवचनोंके माध्यमसे समाजका महान् उपकार किया व कर रहे हैं। जैनधर्म और उसके उदात्त सिद्धान्तोंकी वे जनसाधारणके योग्य व्याख्या करते हैं। अनेक संस्थाओंसे सम्बद्ध -८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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