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________________ हमारे घर पधारते और घरको पवित्र करते थे। स्व० ० शीतलप्रसादजी, पं० तुलसीरामजी, स्वर्गीय श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, स्व० सूरजभानजी वकील आदि पुराने विद्वानोंके सिवाय स्व० पं० राजेन्द्र कुमारजी मथुरा, पं० कैलाशचन्द्रजी वाराणसी, स्वामी कर्मानन्दजी (क्षुल्लक निजानन्दजी), बाबू रतनचन्दजी मुख्तार आदि विद्वानोंका समागम हमलोगोंके लिए बड़ा सुखद रहता था । डॉ० कोठियाका हमारे परिवारसे सन् १९४५ से सम्बन्ध है। जब वे सन् १९४८ में वीर-सेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर)के एक नये कार्यालयको ७ दरियागंजमें स्थित चैत्यालयमें खोलनेके लिए स्व० पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके साथ दिल्ली पधारे तो हमारे घरपर ही सपरिवार कई वर्ष रहे । वीर-सेवामन्दिरका कार्यालय भी कई वर्षों तक पहले हमारे मकानपर व फिर हमारे द्वारा निर्मित अहिंसा-मन्दिरमें रहा। इससे उनके साथ पिताजी और हमारे पूरे परिवारको घनिष्ठता हो गयी। पिताजीका उनके साथ अनेक विषयमें विचार-विमर्श होता था। कुछ ऐसा प्रसंग आया कि उन्हें वीर-सेवा-मन्दिर छोड़ना पड़ा। तब भी वे हमारे घरपर बने रहे । इस अवसरपर हमने निकटसे उनके स्वाभिमानको देखा और देखी कठिन परिस्थितिमें उनकी अडिगता । यद्यपि वर्तमान वीर-सेवा-मन्दिरके निर्माणमें उनका बहुत बड़ा योगदान है। उन्हींकी प्रेरणासे स्व० बा० छोटेलालजी कलकत्ताने दिल्लीमें वीर-सेवा-मन्दिरके भवन-निर्माण में अपने भाई स्व० गुलजारीलालकी ओरसे ४०,०००)= का दान दिया और पिताजीने डॉ० कोठियाके विशेष जोर देने पर अपना दरियागंजमें स्थित वह मकान केवल ४०,००० में वीर-सेवा-मन्दिरको, जिसपर आज उसका भव्य भवन बना हुआ है, दे दिया । वीर-सेवा-मन्दिर छोड़ देनेपर परमपूज्य प्रशममति न्यायाचार्य स्व० क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णीने चिन्ता व्यक्त करते हुए डॉक्टर कोठियाके विषयमें पिताजीको अनेक महत्वपूर्ण पत्र लिखे थे, जिनसे मालूम होता है कि पूज्य वर्णीजीको कोठियाजीके विषयमें कितना ध्यान था। उनके कुछ पत्र यहाँ दिये जाते हैं २००७, दिनांक १९-४-५० । __ पं० दरबारीलालजीसे मेरा सस्नेह आशीर्वाद । भैया जहाँ तक बने, आप बाबूजी (मुख्तार साहब) का कार्यभार वहन करना । वहाँ रहनेसे साहित्यका उद्धार बहुत कर सकेंगे। मुझे आप लोगोंके उत्कर्षमें आनन्द है । बाबूजी वृद्ध हैं। वृद्धावस्थामें यदि कोई क्रोधसे कुछ कह भी दे, तब भी उसे नहीं गिनना चाहिए । आशा है आप गम्भीर दृष्टि से विचार करेंगे । मेरा अपनी मण्डलीसे दर्शन-विशुद्धि । राजेन्द्रकुमारजोसे दर्शन-विशुद्धि । आप बाबूजीको समझा देना, जो सम्मानसे पं० दरबारीलालजीको बुला लेंगे। संसारके कारण मानकी चाहना कोई उत्तम पुरुषका कार्य नहीं। मैं बाबूजीकी वृद्ध पुरुषोंमें गणना करता हूँ। वृद्धके तात्पर्यसे नहीं, विवेक व प्रतिभासे है । जेठ सुदी ११, सं० २००७, दिनांक २६-५-५० पं० दरबारीलालजी, अपने पठन-पाठनके कार्यमें ही अपना उपयोग लगाना । सामाजिक तत्त्वमें न पड़ना। आ० व० ४, सं० २००७, दिनांक २०-९-५० पं० दरबारीलाल जीसे मेरो दर्शन-विशुद्धि । जिसमें उनके ज्ञानका विकास प्रतिदिन वृद्धिरूप रहें, सो करें, चाहे दिल्ली रहें या अन्यत्र रहें। असोजवदि १०, सं० २००७, दिनांक १-१०-५० श्री पं० दरबारीलालजीसे दर्शन-विशुद्धि । जिन्हें न्यायदोपिका पढ़ा लो, तर्कसंग्रह अवश्य पढ़ा लेना । जिन्हें गोम्मटसार पढ़ाओ उन्हें सिद्धान्तप्रवेशिका अवश्य पढ़ाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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