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________________ आचार्य कुन्थुसागरजी ससंघ, आर्यिका विजयमती माताजी आदि सभी त्यागीगण प्रवचन-स्थानमें समयपर आ उपस्थित होते थे। हालमें देरसे पहुँचनेपर बैठनेको स्थान नहीं मिलता था । पूज्य एलाचार्यजीका नियंत्रण व व्यवस्था भी देखते ही बनती थी। स्थान बदला गया और बड़ा हाल चुना गया। तब वह भी अपर्याप्त रहता था। ऐसा आकर्षण था डॉ० साहबका । सभी खिंचते चले आते थे । अन्य समयमें भी लोग डॉ० साहबको घेरे रहते थे। बहुतसे मुनिगण व आर्यिका आकर डॉ० साहबको बुला ले जाते थे और उनसे पढ़ते व शंका-समाधान करते थे। डॉ० साहब जल्दी लोटना चाहते थे, किन्तु पूरे दो माह (जनवरी-फरवरी ८१) तक वहाँ रहे। मेरा भी सौभाग्य है कि हम भी इन चर्चाओंसे लाभान्वित होते थे और डॉ० साहब सपत्नीक हमारे साथ ही रहे थे। उपर्युक्त संदर्भको देनेका प्रयोजन केवल इतना ही है कि डॉ० साहबकी विद्वत्ता और निरभिमानताकी छाप हर जगह पड़ती है, और सब उनके पाण्डित्यका लोहा मानते हैं । महामस्तकाभिषेकके अवसरपर मनिसंघोंको अनुशासनमें रहनेके लिए कुछ नियम सबकी सम्मतिसे बनाये गये थे । साधुओंकी चर्या, प्रवास और दीक्षापर उन नियमों द्वारा नियंत्रण बनानेका प्रयत्न किया गया था। इन नियमोंके निर्माण में समुचित वातावरण बनाने तथा सबके गले उतारने में डॉ० साहबका पर्याप्त प्रयास रहा था। डॉ० साहबने बड़े परिश्रमसे उचित शब्दोंका चयन करके उल्लिखित साधु-संहिताको तैयार करने में परिश्रम किया था। पूज्य एलाचार्यजीका तथा सभी संघोंके आचार्योंका उन्हें वरद आशीर्वाद प्राप्त था। इस कार्य में पं० बलभद्रजी न्यायतीर्थका भी प्रयत्न रहा। ___ डॉ० साहब केवल विद्वान ही नहीं हैं, दानी भी हैं। उन्होंने अनेक संस्थाओंको दान दिया है । मैंने स्वयं देखा है कि श्रवणवेलगोलामें डॉ० साहबने कलश लिया। भण्डारमें दिया। और बच्चोंके फंडमें भी दिया । वे पावामें जब आते हैं तो वहाँ भी हमने उन्हें कलश लेते और व्रतभण्डार देते देखा है। उनके घरपर एक-दो विद्यार्थी बरावर आते रहते हैं, जिन्हें वे स्वयं तथा दूसरोंसे मदद करते-कराते हैं । एक छात्रको तपेदिक हो गया था, उसकी बराबर दवा, भोजन व फलकी व्यवस्था डॉ. साहबने स्वयं व दूसरोंसे कराई थी। मुझे उन्होंने जो पत्र लिखा था उसमें उनकी चिन्ता स्पष्ट प्रकट थी। विद्यादान, औषधिदान, आहारदानमें भी डॉ० साहब पीछे नहीं हैं, जो मैंने कम विद्वान् लोगोंमें देखा है । आतिथ्य-सत्कारमें तो डॉ० साहबका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। उनके घरपर पहुँचे लोगोंको उचित जलपान व भोजनकी व्यवस्था वे बराबर करते रहते हैं। _मैं अपनेको सौभाग्यशाली समझता हूँ और अपने पूर्वजन्मके किसी पुण्य-कर्मका फल मानता हूँ कि ऐसे सरल, निरभिमानी विद्वान पंडितका स्नेह मुझे और मेरे परिवारको प्राप्त हआ। मेरे श्रद्धा-भाजन श्री प्रेमचन्द्र जैन, दिल्ली पूज्य डॉक्टर पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्यका हमारे परिवारसे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। मेरे पिताजो (स्वर्गीय ला० राजकृष्ण जैन)को विद्वानोंसे बड़ा प्रेम था और वे उनका बहत आदर करते थे। वे कहा करते थे कि विद्वान् समाजके तृतीय नेत्र हैं। विद्वान् अपने विद्यानेत्र द्वारा समाजको पथप्रदर्शन करते हैं । विद्वान् हमें ज्ञान देते हैं और संस्कृतिको जीवित रखते हैं। उनके इस प्रेम और आदरके कारण विद्वान् -८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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