SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन् १९५४ ई० में हम दि० जैन कालेज बड़ौतमें पहुँच गये । वहाँ पर डॉ० राजकुमारजी साहित्याचार्य संस्कृत विभागके अध्यक्ष थे । वह सन् १९५५ ई० के अन्त में आगरा कालेज, आगरामें संस्कृत-विभागके अध्यक्ष पदपर चले गये तब हमने बड़ी प्रेरणा करके कोठियाजी को बड़ौत कालेज में बुलवा लिया । अपने घर पर १५ दिन वह रहे । परिवार कितना प्रसन्न हुआ कि हमारी शिकायतें कोठियाजीसे करके अपने मनका कार्य बच्चे अपने ताऊके आदेशसे पूरा करा लेते थे। अच्छा समय व्यतीत हआ। १५ दिन बाद दिल्लीसे भाभीको लिवा लाकर आप अलग मकानमें रहने लगे। अपने बड़ौतमें चारचांद लगा दिये । महान् तपस्वी वचनसिद्ध आचार्य नमिसागरजी महाराजकी प्रेरणासे आप प्रातःस्मरणीय चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराजकी समाधिमरणबेलामें कुंथलगिरि भी पहुँचे और सभी को गुरुश्रद्धांजलि भेंट की। बादको आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें जैन दर्शनके पदपर चले गये । बड़ौतकी जैन समाज में आप अत्यन्त प्रिय हो गये थे। हमलोगोंका तो परस्पर सौहार्द बढ़ता ही गया । आपके साथ अनेकों स्थानोंपर जाने-आनेका अवसर मिला। आप विद्वानोंके हितैषी है । द्रोणगिरि पंचकल्याणकमें विद्वत् परिषद्के अधिवेशनमें नवयुवक विद्वान्को मंत्री पदपर लानेके लिए संघर्ष रहा। हम चाहते थे कि कोठियाजी प्रचारमन्त्री बनें । पर हमारी भावना ठुकरा दी गई । उसका परिणाम ही अ०भा० दि० जैन शास्त्रिपरिषदका पुनर्जागरणके रूपमें हुआ। और फिर समयकी गतिसे डॉ० नेमिचन्दजी जैन अध्यक्ष चुने गये। पश्चात् डॉ० कोठियाजी अध्यक्ष चुने गये और अब तो सभी क्रमसे चुने जाने लगे। कोठियाजीको किसी विद्वानका नाम उसकी कृतिपर न छपे और कोई दूसरा अपना नाम छपवा दे, इसपर भारी रोष होता है। ऐसे ही एक महान ग्रंथपर एक विद्वानका नाम छपनेसे रह गया था, हमने जब उन्हें बताया तब उन्होंने उसका 'सन्देश में विरोध किया । वे उस समय रुग्णशय्यापर थे । आखिरमें उस विद्वानका नाम जब छपा तब ग्रन्थ वितरण हआ, बिका । हमें समय-समयपर हमारे कार्योंपर सन्मार्गदर्शन आप कराते रहते हैं और हमारी भूलोंपर भी प्रश्नवाचक चिह्न लगाते रहते हैं । आप हमारे अग्रज हैं। इनका आशीर्वाद हम लेते हैं और इनके चिराय की कामना करते हैं। अनुपम विद्वान् प्रो० उदयचन्द्र जैन, वाराणसी न्यायाचार्य श्री दरबारीलालजी कोठिया जैनन्याय तथा जैनदर्शनके अनुपम विद्वान् हैं । आपसे मेरा सर्वप्रथम प्रत्यक्ष परिचय श्री वीर दि० जैन विद्यालय पपोरामें सन् १९३७ में हआ था, जहाँ मैं विशारद कक्षामें अध्ययन कर रहा था और आपने एक सफल अध्यापकके रूप में उक्त विद्यालय में पदार्पण किया था। उस समय पपौराजी क्षेत्र तथा विद्यालयके उत्साही मंत्री बाब ठाकूरदासजी क्षेत्र तथा विद्यालयकी उन्नतिके लिए सदैव प्रयत्नशील रहते थे। यही कारण है कि उस समय पपौरा विद्यालयमें श्री पं० किशोरीलालजी शास्त्री, श्री पं० दरबारीलालजी कोठिया और श्री पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य जैसे उच्चकोटिके विद्वान् कार्यरत थे। उस समय पपौरा विद्यालयका वातावरण परम शान्त एवं आकर्षक था। छात्र संख्या ५०, ६० के लगभग रहती थी। विद्यालयके संस्थापक श्री प्रतिष्ठाचार्य पं. मोतीलालजी वर्णी भी वहीं रहते थे । -७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy