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________________ पपौरा विद्यालयमें मैंने कोठियाजीसे न्यायदीपिका, प्रमेयरत्नमाला, आप्तपरीक्षा और युक्त्यनुशासन आदि न्याय तथा दर्शनके ग्रन्थोंका अध्ययन किया है। आपकी पाठनशैली अत्यन्त सरल, सुबोध तथा आकर्षक है जिससे छात्रोंको न्यायशास्त्रके कठिन स्थल भी सुगमतासे समझमें आ जाते हैं। आपकी गम्भीर विद्वत्ताका मुझपर जो प्रभाव पड़ा वह अभी भी हृदयपटलपर अंकित है । मैं सन् १९४० में पपौरा विद्यालयसे श्री स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें उच्च अध्ययनके लिए आ गया और कोठियाजी भी पपौरासे मथुरा चले गये । इसके अनन्तर बीस वर्ष बाद हम लोग सन् १९६० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें प्राध्यापक होकर आ गये तथा कुछ वर्षों तक एक ही मकानमें साथ-साथ स्नेहपूर्वक रहे । सन १९७४ में कोठियाजीने विश्वविद्यालयकी सेवासे अवकाश ग्रहण कर लिया। हम लोग हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्कृत महाविद्यालयमें अत्यन्त सौहार्दपूर्ण वातावरणमें एक साथ रहे। ___ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कोठियाजीका मुझपर प्रारंभसे ही अब तक विशेष स्नेह रहा है और मैं सदा ही आपका अत्यन्त आदर और सम्मान करता हूँ। यह अत्यन्त प्रसन्नताकी बात है कि कोठियाजी जैसे अनुपम विद्वानका सार्वजनिक अभिनन्दन हो रहा है और इस अवसरपर उनको अभिनन्दन-ग्रन्थका समर्पण स्वभाविक ही है। मेरी हार्दिक कामना है कि कोठियाजी पूर्ण स्वस्थ रहते हुए शतायु होकर हम लोगोका मार्गदर्शन करते रहें। मेरे आद्य विद्यागुरु प्रो० डॉ० राजाराम जैन, आरा सन् १९३९ में प्राइमरी चौथी कक्षा पास कर श्री वी० दि० जैन विद्यालय पपौराजी (टीकमगढ़, मध्यप्रदेश) में अध्ययनार्थ पहँचा था। उस समय यह विद्यालय श्रेण्य-कोटिमें गिना जाता था। विद्यालयमें प्रवेश तो मझे मिल गया, किन्तु घरकी याद अधिक आती। इसी बीच मेरा परिचय वहीं के एक अध्यापकसे हआ। वे नाटे कदके, गौर-वर्ण व्यक्ति, नुकीली नाक, सरल-स्वभाव एवं खद्दरधारी थे। रथाकृतिके ७५वें मन्दिरका एक कमरा उस समय उनका अध्ययन एवं संगीत-साधनाका कक्ष था। उनकी इन प्रवृत्तियोंसे मैं उनसे बहुत ही प्रभावित हुआ.। एक दिन मैं अपने विद्यालयकी सीढ़ीपर बैठकर घरकी स्मृतिमें खोया हुआ आँसू बहा रहा था। उन्होंने मुझे देख लिया और मेरे गृह-विछोह जन्य दुःखको समझ लिया। वे अत्यन्त स्नेहपूर्वक मुझे अपने घर ले आये और अपनी धर्मपत्नीसे बोले-"देखो ! यह अपना लड़का है । यह घरकी याद करके रो रहा है, इसे समझाओ और जलपान कराओ। उन पति-पत्नीके इस स्नेहिल व्यवहारसे मैं न केवल अपने घरके विछोह-जन्य दुःखको भूल गया, अपितु, मुझे पढ़ने-लिखनेको पर्याप्त प्रेरणा भी मिली । उस सौम्य मूत्तिका नाम था पं० दरबारीलालजी कोठिया और उस श्रद्धेया महिलाका नाम था श्रीमती पं० चमेली बाईजी। उस समय ये केवल प्राचीनन्यायशास्त्री, दर्शनशास्त्री, सिद्धान्तशास्त्री एवं न्यायतीर्थ थे। किन्तु अपनी लगन एवं अदम्य उत्साहके कारण वे जैन समाजके सम्भवतः चौथे न्यायाचार्य एवं न्यायाचार्य-पदवीधारी दूसरे पी० एच० डी० डाक्टर हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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