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________________ अद्वितीय प्रतिभाके धनी ब्र० पं० गोरेलाल शास्त्री, द्रोणगिरि विद्याके विभागोंमें न्याय सबसे क्लिष्ट समझा जाता है । विशेषतः तर्कपर आधारित जैन न्याय तो और भी गम्भीर है। न्यायको परम्परामें आध्यात्मिक सन्तप्रवर पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी, माणिकचन्द्रजी कौन्देय, डॉ० महेन्द्रकुमारजी एवं डॉ० दरबारीलालजी कोठिया इन चार विद्वानोंकी, जिन्हें न्यायाचार्यचतुष्टयीके नामसे कहा जाता है, अमूल्य सेवाओंका लाभ समाजको प्राप्त हुआ है । प्रारम्भके तीन विद्वान् तो इस संसारसे चले गये हैं । डॉ० कोठियाजीकी अमूल्य सेवाओंका लाभ अभी भी जैन समाजको मिल रहा है। इस समय डॉ० कोठियाजी निस्सन्देह न्याय के क्षेत्रमें एकमात्र जैन विद्वान् है । इनके द्वारा न्यायके क्षेत्रमें जो अभूतपूर्व कार्य किया गया है वह अपने आपमें कीर्तिमान है। अद्वितीय प्रतिभाके धनी डॉ० कोठियाकी सेवाओंके उपलक्ष्यमें उन्हें समाजने अनेक सम्मानसूचक उपाधियोंसे सम्मानित किया है। अनेक उपाधियाँ अपने पुरुषार्थसे उन्होंने अजित की है। डॉ० कोठियाजीका जो सम्मान किया जा रहा है वह निश्चित ही डॉ० कोठियाजीका नहीं सरस्वती और सारस्वतका सम्मान है । हम उनके इस अभिनन्दनके अवसरपर उनका हार्दिक अभिनन्दन करते और दीर्घ तथा यशस्वी जीवनके लिए मंगल-कानमाएँ करते हैं । बड़े भाई कोठियाजी पं० बाबूलाल जैन जमादार, बड़ौत मान्य भाई डॉ० दरबारीलालजी कोठियाको हम सन् १९४१ से वीरसेवामंदिर, सरसावामें वीरशासन-जयन्तीके प्रारम्भ करनेके समयसे जानते हैं । उनके अनेकांत आदिमें उस समयके चल रहे आचार्य समन्तभद्र आदिको मान्यताओंपर लेख लिखने तथा स्व० आचार्य जगलकिशोरजी मुख्तारके परम प्रिय डॉ० कोठियाजी साहित्यिक क्षेत्रमें नये-नये आनेसे उच्चपदस्थ विद्वानोंकी श्रेणी में उभर कर आये थे। वह दृश्य आज भी हमारे सामने है जब वीर-सेवा-मन्दिरके नये भवनमें वीर-शासन-जयन्तीके अवसरपर ९ जुलाई १९६० को दिल्ली में आचार्य जुगलकिशोरजीने उपस्थित श्रीमंतों, विद्वानों और समाजमान्य नेताओंके सम्मख यह घोषणा की थी कि पं० दरबारीलालजी कोठिया हमारे धर्मपुत्र हैं। सभीने यह बात भावुकतामें समझो थी। लेकिन भाई कोठियाजीने अपने कार्योंसे उसे पूर्ण सत्य सिद्ध कर दिखाया। देहलीमें सन् १९५३ ई० में जब कोठियाजी श्री समन्तभद्र संस्कृत महाविद्यालयके आचार्यपदपर कार्य कर रहे थे, तभी हमारा उनका पारिवारिक सम्बन्ध जुड़ा। हम उन दिनों जैन बाल आश्रमके गृहपति थे। एक नवीन चेतनाको जन्म दिया गया कि जैन अनाथाश्रमको 'जैन बाल आश्रम' कहा जाना चाहिये। यह बालक जैन समाजकी विभूति हैं, अनाथ नहीं हैं । अतः इस शब्दका विरोध किया । सभीको यह सुझाव ऊँचा और खुशी है कि इसका नामकरण जैन बाल आश्रम हुआ। उन दिनों कोठियाजीके अलावा स्व. पं० सुरेशचन्द्रजी न्यायतीर्थ, पं० चन्द्रमा लिजी शास्त्री भी हमारे साथ आश्रममें कार्य करते थे। नवीन चेतनाका वह युग था। उसका शुभ परिणाम, आश्रमसे उच्चपदोंपर लड़के नियुक्त हुए । -७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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