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________________ चतुर्थ सक्रम एवं पूर्ण जैन-न्यायाचार्य प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी श्री महावीर दिगम्बर जैन पाठशाला साढूमलकी दिगम्बर जैन वाङ्मयकी सेवाएँ असाधारण हैं, क्योंकि जैन न्यायके मुख्य सूत्रग्रन्थ (परीक्षामुख) का प्रथम-अनुवाद स्व० पं० घनश्यामदासजी बजाजने यहीं किया था। इस पाठशालाके प्रथम शिष्यवर्गमें स्व. पं० हीरालाल शात्री ही डॉ० हीरालाल जैनके धवला. प्रकाशनके प्रयासमें मार्गदर्शक-सहायक हए थे । तथा धवल-त्रयी वाङ्मयके आदि-मध्य तथा अन्त सार्थवाह श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री भी साढूमल पाठशालाके ही महत्तम प्रसून हैं। कभी फूलती-फलती जैनविद्यालयोंरूपी शाखाओंके इस धूलगत मूल महावीर पाठशालामें ही सन् १९२७ में मैंने अग्रज विद्यार्थी दरबारीलालजीको देखा था । तत्कालीन पाठशाला-छात्रोंमें इनसे अधिक परिश्रमी स्व० अमरचन्द्र (दोणगिरि) ही थे। किन्तु अपनी घोर परिश्रम-साधनासे भी वे शारदाका उतनी भी कृपाकटाक्ष न पा सके थे, जितनीकी वे दरबारीलालजीपर प्रसन्न हई। और भविष्यमें होती हो गयीं; क्योंकि ये खेलकुद सभीसे मुख मोड़कर अपनी पाठ्य-पुस्तकोंसे ही जूझे रहते थे। एक दिन दरबारीलालजीका अंगोछा (बचकानी धोती) खो गयी। इस हानिका आघात तो इनपर बहुत था, किन्तु समाधान उससे भी महत्त्वपूर्ण था । बोले-“कल-परसों सड़कपर पड़ी इकन्नी मैंने उठा ली थी, सो आज मेरा 'अंगोछा' चला गया 'निहितं वा पतितं वा' यथार्थ है।" रत्नकरण्डश्रावकाचारके इस अन्तर्मुख प्रभावने इनकी प्रामाणिकताको मुझपर जो छाप छोड़ी वह मेरे मन में विगत ५६ वर्षोंसे अमिट है। हमारे आद्य गुरुकुलके बाद, जैन विद्वानोंके महागुरुकुल स्याद्वाद महाविद्यालयमें फिर हम सहाध्यायी हुए। यहाँ भी इनकी दिनचर्या वही रही। एक परिवर्तन जरूर हआ कि यदि कभी हम खिलाड़ियोंके कहनेसे खेलने चले जाते थे, तो रात ११-१२ बजे तक पढ़कर कमी पूरी करते थे। इसका एक कारण यह भी था कि जैन न्यायाध्यापकसे पढ़ने की रशम अदा करके अनुज सहाध्यायी उसी पाठको दरबारीलालजीसे लगवाते थे। अतः इस विद्यादानके समयको ये अपनी नींदसे वसूल करते थे । दरबारीलालजीका अध्ययन प्रगतिपर था, किन्तु लड़की वाले पीछे पड़ गये। विवाह होते ही स्वावलम्बी बननेके लिए भी अध्ययन स्थगित करके भा० दि० जैनसंघके स्वल्पवृत्ति उपदेशक-विद्यालयको अपनाया; क्योंकि समाज-सेवाका भाव उग्र था। वहींपर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके परिचयमें आये । वे इनकी अथक परिश्रमशीलता एवं पठित ग्रन्थोंकी उपस्थितिपर ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्होंने इन्हें बौद्धिक पुत्र बना लिया । इस प्रकार गुरुकुलगत अध्ययन-परम्पराके रुकनेपर भी दरबारीलालजीका न्यायाचार्य (वा० सं० वि०वि०) बननेका लक्ष्य; गुरुत्व प्राप्त होनेपर दष्टिसे ओझल न था। अपितु स्याद्वाद महाविद्याद्यलयमें १९३९ से चली आचार्य-एम० एम० परम्पराके कारण अपने लक्ष्यका विस्तार किया। और परिपक्व हो जानेपर भी न्यायाचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी० करके ही रुके। यदि इन्हें स्व० पं० नेमिचन्द्र आचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट्के दुःखद देहावसानका आघात न लगता, तो कोठियाजी भी परिणतवयमें डी० लिट० जरूर होते । 'विघ्नः शतैरपि प्रतिहन्यमाना ईप्सितार्थं न त्यजन्ति धीराः' आज भी कोठियाजीका लक्ष्य है। वीर-सेवा-मन्दिरकी सेवासे ग्रहीत जैन न्यायके ग्रन्थोंके आधुनिक सम्पादनकी परम्परामें दशक हो जानेपर भी आज अष्टसहस्रीके कष्टसहस्रीपनको मेट कर उसे स्पष्ट-सहस्री बनाने में लीन है । शारीरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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