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________________ वयकृत परिवर्तन मानसिक श्रमसे बचनेकी दिशामें है, किन्तु संकल्प उनकी उपेक्षा कराता है । मृच्छकटिक नाटकमें संवाहक जुए में हार कर भागता है । वसन्तसेनाके घर में शरण लेता है । और कहता है-दश सुवर्ण देकर मुझे बचा लीजिये, मैं आपकी सेवा करके चुकाऊँगा। वसन्तसेना पूछती है-"आपकी आजीविकाकी क्या वृत्ति है ? उत्तर मिलता है "मेरी आजीविकाकी वृत्ति मर्दनकला है।" फिर अपने विभवपूर्ण अतीतको याद करके कहता है-“कला कलारूपसे सीखी थी किन्तु इस समय वह आजीविका हो गयी है।" लगता है कि भाई कोठियाजीने इसका ब्लोम कर दिया है क्योंकि आजीविकारूपसे आरब्ध जैन न्यायशास्त्रकी सेवा आज उनके जीवनकी कला बन गयी । इसलिए अष्टसहस्री निश्चयसे स्पष्टसहस्रीरूपमें भावी पीढ़ीके लिए छोड़नेमें वे त्रियोगसे लगे हैं और अवश्य सफल होंगे । अभिनन्दन ग्रन्थोंकी बाढ़के युगमें इस अभिनन्दन-ग्रन्थकी जिस विशेषताने आकृष्ट किया है वह है 'कड़ोरे घसीटे'की विरुदावलिको छाप कर ग्रन्थका कलेवर बढ़ानेसे विरत होकर कोठियाजीके समस्त लेखोंको इस ग्रन्थमें देना है। यह प्रशस्त और उपयोगी परम्परा होगी। सक्रम एवं पूर्ण चतुर्थ जैन न्यायाचार्यकी चिरायुकी हार्दिक कामना करता हूँ। अलौकिक प्रतिभाके धनी पं० भंवरलाल न्यायतीर्थ, जयपुर न्यायचार्य डा. दरबारीलालजी कोठिया समाज के उन चोटीके विद्वानोंमें हैं जिन्हें जैनदर्शनका तलस्पर्शी अध्ययन है, तत्त्वचर्चाकी दुरूह बारीकियोंकी पकड़ है और उन्हें सरल रूपमें श्रोताके गले उतारनेकी विलक्षण क्षमता है। नवीन शिक्षा-पद्धतिके अनुसंधानकर्ता पी-एच. डी. डा० विद्वान् एवं जिज्ञासुओंकी शास्त्रसभामें बैठ कर गढ तत्त्वचर्चा करने वाले एवं शास्त्रार्थ करने वाले प्राचीन परम्पराके विद्वान दोनोंका रूप डा० कोठियाजीमें विद्यमान है । डा० कोठियाजी समाजके एक गौरवशाली विद्वान हैं। न्यायशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थोंके पठन-पाठन और सम्पादनमें आपकी विशेष रुचि रही है जो कुशाग्रबद्धिकी परिचायक है। नियमसारकी ५३ वौं गाथाकी व्याख्या और अर्थ विषयक चिन्तन लेख हाल ही में वीर-वाणीमें प्रकाशनार्थ आया। मैंने पढ़ा, तो देखा कि कितनी पकड़ आपमें है और कितनी बारीकीसे आप किसी ग्रन्थको पढ़ते हैं। ऐसे कम विद्वान समाजमें मिलेंगे। आपने करीब एक दर्जन दर्शन और न्यायके ग्रन्थोंका सुन्दर गवेषणा पूर्ण सम्पादन किया है । ग्रन्थोंकी ऐतिहासिक तथ्योंके आधार पर जो खोज पूर्ण विस्तृत, पर मौलिक भूमिकायें लिखी हैं वे स्वतः सन्दर्भ ग्रन्थ बन गई हैं और अनुसंधानकर्ताओंके साथ-साथ जिज्ञासुओं और विद्वानोंके लिए मार्गदर्शनका काम करेंगी। दो वर्ष पूर्व प्रकाशित आपका 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे हम जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्रका निचोड़ ग्रन्थ कहें तो अत्युक्ति न होगी। तद्विषयक सभी चर्चाओंका इसमें समावेश है और वह एक सन्दर्भ-ग्रन्थ बन गया है। अकेला ही वह ग्रन्थ विषयकी सही जानकारी देते हुए खोजी विद्वानोंको दिशा प्रदान करने वाला है। उक्त कृतियोंको देखकर कोई भी विद्वान जैन न्यायके अधिकारी विद्वान् डा० कोठियाजीको अलौकिक प्रतिभाकी सराहना किये बिना न रहेगा। -६० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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