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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५१ जोव व पुद्गल के स्वभाव व विभाव परिणमन में अन्य द्रव्य हेतुता शंका-जोव और पुद्गलों के विभाव तथा क्रमबद्ध पर्यायों में धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों की शुद्ध-क्रमबद्धपर्याय कैसे निमित्त हो सकती हैं ? समाधान-धर्मद्रव्य जीव और पूगल के गमन में सहकारी कारण है। अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल को ठहरने में सहकारी कारण है। आकाश द्रव्य जीवादिद्रव्यों को अवकाश देता है। कालद्रव्य सर्वद्रव्यों के परिणमन में सहायक है। द्रव्यसंग्रह गाथा १७, १८, १९ व २१ । जीव और पुद्गल के परिणमन में ये चारों द्रव्य सामान्य हेतु हैं। इनके कारण जीव और पुद्गलों का स्वभाव या विभाव परिणमन नहीं होता है । जीव और पुद्गलों का परस्पर बंध हो जाने के कारण अथवा पुद्गल का परस्पर बंध हो जाने के कारण जीव और पुद्गलों में विभाव परिणमन होता है । बंध से मुक्त हो जाने पर स्वभाव परिणमन होने लगता है। अतः जीव और पुद्गलों के विभाव और स्वभाव परिणमन में परद्रव्य के साथ बंध-अबंध अवस्था कारण है। धर्म, अधर्म प्राकाश और काल ये चारोंद्रध्य तो अनादि काल से शुद्ध हैं, अतः इनका परिणमन तो स्वाभाविक ही होता है । जीवद्रव्य अनादि काल से पौद्गलिक कर्मों से बंधा हुआ है अतः उसका परिणमन विभावरूप हो रहा है, किन्तु जो मुक्त हो गये उनका परिणमन स्वाभाविक हो जाता है। पुद्गल परमाणु का परिणमन स्वाभाविक है और स्कंध का विभाव परिणमन है। -जै. ग. 15-1-70/VII/ राजकिशोर रागादि भाव किसके हैं ? शंका-समयसार गाथा ५०-५५ में राग, द्वेष, मोह, गुणस्थान व जीवस्थान आदि को निश्चयनय से पुद्गल के कहा है तो क्यों ? राग-द्वषादि भाव जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होते हैं अतः निश्चयनय से ये भाव न जोव के हैं, न पुद्गल के हैं । समाधान-समयसार गाथा १११ की टीका में धी जयसेनाचार्य ने इस विषय को बहुत स्पष्ट किया है जो इस प्रकार है ___'एते मिथ्यात्वाविभावप्रत्ययाः शुद्धनिश्चयेनाचेतनाः खलुस्फुटं । कस्मात् ? पुद्गलकर्मोदय सम्भवा यस्मादिति । यथा स्त्रीपुरुषाभ्यां समुत्पन्नः पुत्रो विवक्षा वशेन देवदत्तायाः पुत्रोयं केचन वदंति, देवदत्तस्य पुत्रोयमिति केचन वदंति इति दोषो नास्ति । तथा जीवपुगल-संयोगेनोत्पन्नाः मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतनाजीवसंबद्धाः शुनिश्चयेन शुद्धोपादानरूपेणाचेतनाः पौगलिकाः। परमार्थतः पुनरेकांतेन न जीवरूपाः न च पुद्गलरूपाः सुधाहरिद्रयोः संयोगपरिणामवत् । वस्तुतस्तु सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनयेन न संत्येवाज्ञानोद्भवाः कल्पिता इति । एतावता किमुक्त भवति । ये केचन वदंत्येकांतेन रागादयो जीवसम्बन्धिनः पुद्गलसम्बन्धिनो वा तदुभयमपि वचनं मिथ्या। कस्मादिति चेत ? पूर्वोक्तस्त्री पुरुषदृष्टांतेन संयोगोद्भवत्वात् ।' ये मिथ्यात्वादि ( राग, द्वेष, मोह आदि ) शुद्धनिश्चयनय को अपेक्षा अचेतन हैं, क्योंकि पुद्गलकर्मोदय से इन रागादिकी उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ पुत्र अपने बाबा के घर पर विवक्षावश देवदत्त-पिता का कहा जाता है, माता का नाम कोई भी नहीं जानता, किन्तु वही पुत्र नाना के घर पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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