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________________ ९५० ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार: विभिन्न अध्यावसानों के नाम शंका-समयसार में यतरेबंधनिमित्ताः ततरे रागद्वषमोहाद्याः [ स० सा० गा० २१७ ] पद आया है। जिसका अर्थ है रागद्वषमोहादि ( अध्यवसान प्रकरण ) यहाँ रागद्वेषमोहावि में 'आदि' शब्द से क्या लेना चाहिए ? समाधान-राग, द्वेष, मोह के अतिरिक्त लेश्यारूप परिणाम प्रमादरूप परिणाम ग्रहण किये जा सकते हैं। बंध के कारणों में कषाय व मिथ्यात्व से पृथक प्रमाद को ग्रहण किया है। प्रात-रौद्ररूप परिणाम भी लिये जा सकते हैं। -पत्राचार 30-9-80/ ज. ला.जैन, भीण्डर शुद्धात्मा में रागादि शक्तितः भी नहीं हैं तथा क्रियावती शक्ति भी प्रात्मा में नहीं है शंका-शुद्धावस्था में शक्तिरूप से राग, योगादि रहते हैं या नहीं ? अकेला ( स्वयं ) जीव रागादि का कर्ता है या नहीं ? जीव की क्रियावती शक्ति है या निष्क्रियत्व शक्ति ? समाधान-राग, योग आदि विभावपर्यायें हैं, जो कि अशुद्धदशा में हो सकती हैं । बन्ध होने पर अशुद्धदशा होती है, अतः बन्ध का नाश होने पर राग, योग आदि शक्ति [ पर्यायशक्ति ] रूप से भी नहीं रहते । द्रव्य सामान्यरूप है। वह अनादि अनन्त है । वह न तो संसारी है, न ही मुक्त । पर्यायें विशेष हैं । वे उत्पन्न होती हैं और विनष्ट होती रहती हैं। सामान्य अपने सब विशेषों में व्याप्त होकर रहता है, अतः उसको तत्प्रमाण कहा है। जैसे बांस ( वेणुदण्ड ) प्रत्येक पोरी में भिन्न-भिन्न है, किन्तु सामान्य से वेणुदण्ड अपनी पोरियों प्रमाण है । विशेष दृष्टि से प्रत्येक पोरी का वेणुदण्ड भिन्न-भिन्न है। अन्यथा द्रव्य का लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य घटित नहीं हो सकेगा। अकेला जीव स्वयं रागादि का अकर्ता है। समयसार गा० २७९ की टोका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है केवलः किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावाद रागादिभिः स्वयं न परिणमते । समयसार गाथा ५१ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है-"जोवस्स पत्थि रागो णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो।" समयसार-आत्मख्याति टीका के अन्त में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने ४७ शक्तियों का कथन किया है उसमें जीव के निष्क्रियत्वशक्ति कही है, किन्तु क्रियावती शक्ति नहीं कही। मात्र हाइड्रोजन में या मात्र आक्सीजन में जलरूप परिणमन करने की शक्ति नहीं है, किन्तु इन दोनों का बन्ध होने पर हवा से [ Gas से ] जलरूप परिणमन हो जाता है। इसीलिए जल को न केवल H कहा तथा न ही केवल 0 कहा, किन्तु H.0 कहा है । आत्मा स्वभाव से अमूर्तिक है, किन्तु बन्ध होने पर मूर्तिक हो जाता है। -पत 14-12-78/ ज. ला. जैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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