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________________ ९५२ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : विवक्षावश देवदत्ता-माता का कहा जाता है वहाँ पर पिता का नाम कोई भी नहीं जानता। इसीप्रकार जीव और पुदगल के संयोग से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरागादिभाव अशुद्धनिश्चयनय और अशुद्धउपादान की अपेक्षा चेतन हैं, क्योंकि जीव के हैं। शुद्धनिश्चयनय और शुद्ध उपादान की अपेक्षा ये रागादिभाव अचेतन हैं, पौद्गलिक निश्चयनय की विवक्षा में शुद्ध जीव को ग्रहण कर अशुद्धपुद्गल को ग्रहण किया गया है ) परमार्थ से जीव और पुद्गल को पृथक्-पृथक् ग्रहण करने पर रागादि न जीवरूप हैं और न पुद्गलरूप हैं, क्योंकि चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुए जात्यंतर रक्तवर्ण के समान ये रागादि जीव और पुद्गल के सम्बन्ध से उत्पन्न हआ जात्यंतरभाव है। वस्तुतः सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में इन रागादि का सद्भाव नहीं है; ये रागादि कल्पित हैं । ये रागादिविभावभाव होने के कारण न तो शुद्ध जीव के हैं और न शुद्धपुद्गल के हैं। इसलिये शुद्धजीव और शुद्धपुद्गल को ग्रहण करनेवाली सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में रागादिविभावभावों का सद्भाव ही नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि जो एकान्ततः रागादि को जीव के कहते हैं या एकान्त से पुद्गल के कहते हैं उन दोनों के वचन मिथ्या हैं, क्योंकि रागादि जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होते हैं जैसे पुत्र, स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न होता है। यहां पर नैमित्तिकभावों को निश्चयनय से निमित्त के बतलाये गये हैं। -जं. ग. 12-2-70/VII/ रतनलाल रागादि का प्रात्मा के साथ तादात्म्य संबंध है शंका-रागादि के साथ आत्मा का कौनसा सम्बन्ध है ? तादात्म्यसंबंध या मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध। समाधान-जिस समय यह प्रात्मा अपने परिणमन स्वभाव से द्रव्य कर्मोदय का निमित्त पाकर रागादिरूप परिणमता है उससमय यह जीव उन रागादिपरिणामों से तन्मय हो जाता है। कहा भी है-परिणमदिजेण दग्वं तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्त। (प्रवचनसार गाथा ८)। अर्थात-जिससमय जिस भाव से द्रव्य परिणमन करता है उससमय उसी भावमय द्रव्य हो जाता है । इस आगमप्रमाण से यह सिद्ध हुआ कि रागादि का आत्मा के साथ तादात्म्यसंबंध है, किन्तु यह तादात्म्यसंबंध कालिक व स्वाभाविक तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है जैसा कि अग्नि और उष्णता का कालिक व स्वभाविक तादात्म्य सम्बन्ध है। इस अपेक्षा से समयसार गाथा ५७ में रागादि का जीव के साथ तादात्म्यसम्बन्ध का निषेध किया है। प्रात्मा के साथ रागादि का निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं है, क्योंकि, रागादि प्रात्मा की ही अशुद्ध ( विभाव ) पर्याय है। समयसार कलश १७४ में यह प्रश्न हआ कि रागादि का निमित्त प्रात्मा है या कोई अन्य । इसके उत्तर में गाथा २७८-२७९ के द्वारा स्फटिकमणि का दृष्टान्त देकर यह बताया गया कि आत्मा रागादि का निमित्त नहीं है, किन्तु अन्यद्रव्य हैं। रागादि का मोहनीयद्रव्यकर्मोदय के साथ निमित्तनैमित्तिकसंबंध है। जिससमय जितने अनुभाग को लिये हुए चारित्रमोहनीयद्रव्यकर्मोदय होता है उससमय उतने ही अविभागप्रतिच्छेदों को लिये हुए प्रात्मा के रागादि अवश्य होते हैं। यदि चारित्रमोहनीयद्रव्यकर्मोदय न हो तो जीव के रागादिभाव मात्र अपने उपादान से नहीं हो सकते। इसप्रकार द्रव्य कर्मोदय का और आत्मपरिणाम का अन्वयव्यतिरेक के कारण अविनाभाविसम्बन्ध पाया जाता है। अविनाभाविसम्बन्ध के कारण ही द्रव्यकर्मोदय आत्मा के तद्रूप परिणामों में कारण ( हेतु ) होते हैं। दर्पण के सामने जिसप्रकार का मयूर खड़ा है, दर्पण में उसीप्रकार का मयूर-प्रतिबिम्ब पड़ेगा। मयूर चेतन है और प्रतिबिम्ब दर्पण की स्वच्छता का विकार ( दर्पण की पर्याय ) होने से अचेतन है। मयूर का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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