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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ९४९ अर्थ-जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटिभवों में खपाता है, उन कर्मों को ज्ञानी (निर्विकल्पसमाधि में स्थित ) त्रिगुप्ति के द्वारा उच्छ्वास मात्र में खपा देता है । इस गाथा का अनुवाद छहढाला में निम्न पद्य द्वारा किया गया है। कोटि जन्म तप तपै, ज्ञान बिन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिनमांहि, त्रिगुप्तिते सहज टरै ते ॥ इस गाथा को टीका में श्री जयसेनाचार्य ने ज्ञानी और अज्ञानी की परिभाषा निम्न प्रकार की है 'यन्निविकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वंसवेदनज्ञानं तदभावादज्ञानीजीवो बहुभवकोटिभिर्यकर्मक्षपति तत्कर्मज्ञानीजीवः पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति ।' यदि 'ज्ञान बिन' अर्थात् "अज्ञानी" का अर्थ मिथ्यादृष्टि किया जायगा तो श्री कुन्दकुन्दाचार्य की उपयुक्त गाथा का अर्थ ठीक नहीं बैठेगा, क्योंकि मिथ्याइष्टि तो कर्मों का क्षय नहीं करता है, किन्तु उपर्युक्त गाथा में अज्ञानी के कर्मों का क्षय बतलाया है। कर्मों का क्षय सम्यग्दृष्टि के ही सम्भव है अतः उपर्युक्त गाथा व छहढाला के पद्य में अज्ञानी से अभिप्राय उन सम्यग्दष्टि जीवों का है जो निर्विकल्पसमाधि से रहित हैं। जो सम्यग्दृष्टिजीव निर्विकल्पसमाधि में स्थित हैं वे ही ज्ञानी हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य की यही दृष्टि समयसार आदि ग्रन्थों में भी रही है अतः वहाँ पर भी 'ज्ञानी' शब्द से वीतरागसम्यग्दृष्टि अर्थात् निर्विकल्पसमाधि में स्थित सम्यग्दृष्टि को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ज्ञान श्रद्धान के अनुरूप आचरण करने के कारण निर्विकल्पसमाधि में स्थित वीतरागसम्यग्दृष्टि ही वास्तविक ज्ञानी है। निर्विकल्पसमाधि से रहित सविकल्पचारित्र वाले सम्यग्दृष्टि भी वास्तविक ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। फिर ज्ञानी शब्द से असंयतसम्यग्दृष्टि का कैसे ग्रहण हो सकता है। इसीलिये श्री जयसेनाचार्य ने समयसार की टीका में लिखा है 'अत्र ग्रंथे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेग्रहणं ।' (पृ० २७४ ) श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने निर्विकल्पसमाधि में स्थित वीतरागसम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहा है और सविकल्पसम्यग्दृष्टि को अज्ञानी कहा है। -ज. ग. 4-12-69/VI/ जिनेन्द्रकुमार जीवतत्त्व विभाव में हेतु अध्यवसान शंका-'समयसार' में अध्यवसान से क्या अर्थ लिया है ? समाधान-यद्यपि अध्यवसान का अर्थ निर्णयात्मक ज्ञान होता है, परन्तु समयसार की टीका में अध्यवसान का अर्थ मिथ्याज्ञान लिया है । ( देखो कलश १७०) रागद्वेष पर-वस्तु के आश्रय से होता है, अतः बुद्धिपूर्वक रागद्वेष सहित जो ज्ञान है वह भी अध्यवसान है । [ समयसार गाथा १७२ को टीका ] -पवाघार 6-9-80/ज. ला. जैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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