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________________ ९४८ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थ-अन्धकार में दो मनुष्य हैं, एक के हाथ में दीपक है और दूसरा बिना दीपक है । उस दीपकरहित पुरुष को कुए तथा सर्पादि का ज्ञान नहीं होता, इसलिये कुए आदि में गिरकर नाश होने में उसका दोष नहीं है। हाथ में दीपक वाले मनुष्य का कुए में गिरने आदि से नाश होने पर उस दीपक का कोई फल नहीं हुआ। जो दीपक के प्रकाश द्वारा कूप-पतनमादि से बचता है उसके दीपक का फल है । इसीप्रकार जो कोई मनुष्य 'राग आदि हेय हैं, मेरे नहीं हैं' इस भेदविज्ञान को नहीं जानता, वह तो कर्मों से बंधता ही है। दूसरा कोई मनुष्य 'रागादि हेय हैं, मेरे नहीं हैं' इस भेदविज्ञान के होने पर भी जितने अंशों में रागादिक का अनुभव करता है, उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी बंधता ही है, उसके रागादि के भेदविज्ञान का भी फल नहीं है, अर्थात उसका भेदविज्ञान निष्फल होने से अज्ञान ही है। जो रागादिक भेदविज्ञान होने पर रागादि का त्याग करता है, उसके भेदविज्ञान का फल है अर्थात भेदविज्ञान सफल होने से वह वास्तविक ज्ञानी है। इसी बात को श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना में कहा है चक्खुस्स दसणस्स य सारो सम्पादि दोस परिहरणं । चक्खू होइ णिरत्थं दळूण बिले पडतस्स ॥१२॥ अर्थ-नेत्र और उससे होने वाला जो ज्ञान है उसका फल सर्प, खड्डा, कंटक-इत्यादि दुखों का परिहार करना है, परन्तु जो बिलादि देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्रज्ञान व्यर्थ है। इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में कहा है णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणं त्ति य तदो णियत्ति कुणदि जीवो ॥७२॥ रागादिआस्रवों का अशुचिपना, विपरीतपना, और दुःख का कारणपना जानकर उन रागादिआस्रवों से निवृत्त होता है। संस्कृत टीका-'इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदेव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतझैवज्ञानासिद्धः। यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवति ।' अर्थ-इसप्रकार आत्मा और प्रास्रवों के तीन विशेषणों कर भेद देखने से जिससमय भेद जान लिया उसी समय क्रोधादिक आस्रवों से निवृत्त हो जाता है और उनसे जबतक निवृत्त नहीं हो तबतक उस आत्मा के पारमार्थिक सच्चे भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं होती। जो प्रात्मा और रागादिआस्रवों का भेद-ज्ञान है वह भी यदि रागादिआस्रवों से निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान, ज्ञान ही नहीं है। इन आर्षवाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि निर्विकल्पसमाधि में स्थित होकर रागादि से निवृत्त होने पर ही जीव ज्ञानी कहलाता है और उससे पूर्व वह ज्ञानी नहीं है। अतः छहढाला के उपर्युक्त पद्य में 'ज्ञान बिन' से मात्र मिथ्याष्टिजीव को न ग्रहण करना, किन्तु निर्विकल्पसमाधि से रहित जितने भी जीव हैं उन सबको ग्रहण करना चाहिये क्योंकि श्री कुन्दकन्दाचार्य की दृष्टि में निविकल्पसमाधि से रहित जीव अज्ञानी है। इस बात को श्री प्रवचनसार में स्पष्टरूप से कहा गया है जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं गाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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