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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६३१ खरविषाणइव इन छहद्रव्य नवपदार्थ का अस्तित्व न हो ऐसी बात नहीं है, यदि इनका अस्तित्व न होता तो जिनेन्द्र भगवान इनका उपदेश क्यों करते और इनके श्रद्धान व ज्ञानको सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञाम क्यों कहते? - जिनेन्द्र भगवान ने छहद्रव्य व नवपदार्थ का कथन किया है, अतः व्यवहारनय का विषयभूत होते हुए भी इनका अस्तित्व है। "व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः।" -पंचास्तिकाय गाथा १७२ टीका श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है - अनादिकाल से भेदवासित बुद्धि होने के कारण प्राथमिकजीव व्यवहारनय से भिन्न साध्य साधन भाव का अवलम्बन लेकर सुगमता से मोक्षमार्ग में अवतरण करते हैं। 'ववहारणयं पडच्च पुण गोदमसामिणा चवीसहमणियोग्हाराणमादीए मंगलं कवं । ण च ववहारणो चप्पलओ; तत्तो ववहाराणुसारिसिस्साण पउत्तिदसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सि. वन्यो त्ति मरणेणावहारिय गोवमथेरेण मंगलं तत्थ कयं ।' (जयधवल पु० १ पृ० ८) अर्थ-गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का प्राश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में णमो मंगल किया है। यदि कहा जाय व्यवहारनय असत्य है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है. उसी का आश्रय करना चाहिए ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया। -जै. ग. 4-3-71/V/ सुलतानसिंह सम्यक्त्व को पहिचान दुःसम्भव शंका-सम्यग्दर्शन हुआ या नहीं ? अथवा प्रायोग्यलब्धि हुई या नहीं? कौन जान सकता है ? समाधान-वास्तव में, सम्यग्दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म है जो या तो केवलज्ञान का विषय है या अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान का। यह मतिज्ञान और श्रतज्ञान इन दोनों का किचित् भी विषय नहीं है, साथ ही यह देशावधि ज्ञान का भी विषय नहीं है, क्योंकि इन ज्ञानों के द्वारा सम्यग्दर्शन की उपलब्धि नहीं होती। दर्शनमोहनीयकर्म की तीन प्रकृति और चार अनन्तानुबन्धी इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम या क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । पौद्गलिक कर्म सूक्ष्म है जो पांच इन्द्रियों व मन का विषय नहीं है। अतः सम्यग्दर्शन मति या तज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता, किन्तु बाह्य चिह्नों से कुछ अनुमान किया जा सकता है। यह अनुमान यथार्थ है, ऐसा दृढ़ निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता। -जं. ग. 28-12-61 सम्यक्त्व को भावना शंका-हमारे चारित्रमोहनीय कर्म का उदय है, सो हम चारित्र धारण नहीं कर सकते, ऐसा कहने वाले पुरुषार्थ से श्रावक के व्रत धारण करने का भाव क्यों नहीं करते ? ऐसा कहने वाले क्या प्रमादी नहीं हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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