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________________ ९३२ ] [ पं. रतनचन्द जन मुख्तार : समाधान—जिस जीव के संयम धारण करने की चटापटी अर्थात् निरन्तर वाञ्छा बनी रहती है, किन्तु बाह्य व अन्तरंग कारणों से संयमधारण करने में असमर्थ है फिर भी इस प्रतीक्षा में रहता है कि कब वह अवसर आये कि संयम धारण कर सकू और यथाशक्ति व्रत-नियमों को धारण करता रहता है, ऐसे जीव के चारित्रमोह का उदय कहा जा सकता है । जो जीव व्रत-नियम आदि को मात्र पुण्यबन्ध का कारण जान संयम से उपेक्षाबूद्धि रखता है ऐसा जीव प्रमादी तो है ही किन्तु सम्यग्दृष्टि भी नहीं है । ऐसा जीव ही चारित्रमोह का उदय कहकर अपना दोष कमो के ऊपर थोपना चाहता है। -प्न.ग. 28-12-61 अधुना निर्दोष सम्यक्त्वियों को दुर्लभता शंका-क्या पंचमकाल में जो समय अब बीत रहा है उस काल में सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दर्शन के आठ अंग को पूर्ण धारण कर सकता है या नहीं? समाधान-भरतक्षेत्र में आजकल उपशम व क्षयोपशम सम्यग्हष्टि बिरले होते हैं ( ज्ञानार्णव )। उनमें से निर्दोष सम्यक्त्व को धारण करने वाले कोई एक या दो जीव संभव हैं। क्षायिकसम्यग्दर्शन तो भरतक्षेत्र में पंचमकाल में उत्पन्न होनेवाले जीवों के संभव ही नहीं (धवल पु०६) भरतक्षेत्र में आजकल पंचम काल में आठ अंग को पूर्ण धारण करने वाले सम्यग्दृष्टियों का सर्वथा निषेध नहीं किया जा सकता, परन्तु दुर्लभ हैं।' -जं. ग. 21-3-63/IX/ जिनेश्वरदास अंगहीन सम्यक्त्व, सातिचार सम्यक्त्व है शंका-क्या अङ्गहीन सम्यग्दर्शन सम्भव है ? यदि है तो किस प्रकार ? समाधान-सम्यग्दर्शन के पाठ अंग होते हैं। उन आठ अंगों में से किसी एक मंग की हानि के कारण सम्यग्दर्शन सातिचार हो जाता है। वह सातिचार सम्यग्दर्शन 'अंगहीन सम्यग्दर्शन' कहलाता है। "णिस्संका जिक्कंखा, णिविदिगिच्छा अमूढविट्ठो य । उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल, पहावणा चेवा ॥४६॥" ख० श्रा० निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, सम्यक्त्व के ८ अंग हैं। "तस्था अष्टावङ्गानि, निःशङ्कितत्व, निःकाइ क्षिता, विचिकित्साविरहता, अमूढदृष्टिता, उपवृहणं, स्थितिकरणं, वात्सल्यं, प्रभावनं चेति । सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र २४ सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं :-नि:शंकितत्व, निःकांक्षिता निर्विचिकित्सितत्व, अमूढदृष्टिता, उपवृहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । १. स्मरण रहे कि भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में कभी सबके सब मिथ्यात्यी जीव ही मिले, एक भी अवती सम्यक्त्वी या व्रती सम्यक्त्वी न मिले यह भी सम्भव है। कहा भी है-पण पण अज्जा खंडे भरहेरावधम्मि मिच्छगुणवाणं, अवरे। [वि. प. ४/१3५]-सं0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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