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________________ ६३० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । छह द्रव्य व नौ पदार्थों का जानना हेय नहीं है शंका-क्या छहद्रव्य नवपदार्थों का जानना हेय है ? यदि नहीं तो व्यवहार को हेय क्यों कहा गया है ? व्यवहार का विषय जो छहद्रव्य या नवपदार्थ क्या इनका अस्तित्व नहीं है? समाधान-छहद्रव्य नवपदार्थ और सप्ततत्त्वों का जानना हेय नहीं है, अपितु उपादेय है, क्योंकि इनका जानना तथा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान है तथा ये मोक्ष के मूल हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय में कहा है सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं । चारित्तं समभावो विसयेसु विरूढमग्गाणं ॥१०॥ टीका-मावा खलु कालकलित पंचास्तिकायविकल्परूप नवपदार्थः। तेषां मिथ्यादर्शनोदयापाविताधद्धानाभावस्वभावं भावांतरं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, शुद्ध चैतन्यरूपात्मतत्त्वविनिश्चयबीजम् । तेषामेव मिथ्यावर्शनोदयानसंस्कारादिस्वरूपविपर्य येणाध्यवसीयमानानां तनिवृत्ती समञ्जसाध्यवसाय: सम्यग्ज्ञानं, मनाजानचेतनाप्रधानात्मतत्त्वोपलंभबीजम् । कालसहित पंचास्तिकाय अर्थात् छहद्रव्य और उनके भेदरूप नवपदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है उनका अवबोध अर्थात् जानना सम्यग्ज्ञान है। ___ "धम्माबीसदहणं सम्मत्तं" (गाथा १६०) टीका-धर्मादीनां द्रव्यपदार्थविकल्पवतां तत्त्वार्थभद्धानभावस्वभावं भावान्तरं श्रद्धानाख्यं सम्यक्त्वं । अर्थात-धर्मादि छहद्रव्य, जीवादि नवपदार्थों का श्रद्धानरूप भाव सम्यग्दर्शन है । जीवाजीवाभावा पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अद्रा ॥१०८॥ जीव-अजीव ये दो मूल पदार्थ हैं तथा इन दो के भेद पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नवपदार्थ हैं जिनके श्रद्धान व ज्ञान से सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होता है। इसी बात को तत्त्वार्थसत्र में कहा गया है तत्त्वार्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ जीवाजीवास्रवबन्ध-संवर-निर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ अर्थ-तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये तत्त्व हैं । नकाल्यं द्रव्यषट्कनवपद सहितं जीव षटकायलेश्याः, पंचान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्र भेदाः । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमहंद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥१॥ इस श्लोक में यह बतलाया गया है कि छहद्रव्य, नवपदार्थ पंचास्तिकाय ये मोक्ष के मूल हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । जो मतिमान् इनकी श्रद्धा करता है वही सम्यग्दृष्टि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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