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________________ १४६६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : सर्वागमावगमतः खलु तत्त्वबोधो, मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटनः । जाड्यात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिरेव देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम् ॥२१॥६॥ ( प. पं.) अर्थ-हे देव ! मुक्ति का कारणभूत जो तत्त्वज्ञान है वह ज्ञान निश्चयतः समस्त पागम के जान लेने पर प्राप्त होता है । सो जड़बुद्धि होने से वह हमारे लिए दुर्लभ है। इसी प्रकार उस मोक्षका कारणभूत जो चरित्र है वह भी शरीर की दुर्बलता से इस समय हमें नहीं प्राप्त हो सकता है । इस कारण प्राप में जो मेरी भक्ति रूप शुभ परिणाम है, वही क्रमश: मुझको मुक्ति का कारण है। चारित्रं यदभाणि केवलदृशा देव त्वया मुक्तये, पुसा तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यैः पुरोपाजितः, संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम ॥९॥३०॥ ( ५० पं० ) अर्थ-हे जिनदेव ! आपने जो मुक्ति के लिए चारित्र बतलाया है, उसे निश्चय से मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम काल में धारण नहीं कर सकता है। इसलिए पूर्वोपाजित महान पूण्य से जो मेरी आपमें रढ भक्ति हई वही मझे इस संसार रूपी समद्र से पार होने के लिए जहाज के समान है। जिस प्रकार जहाज से समद्र पार किया जाता है, उसी प्रकार यह जीव जिनेन्द्र-भक्ति रूप शुभ भाव से संसार से पार होकर मोक्ष पहुँच जाता है। संवेगजणिदकरणा णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा। जस्स दढा जिणभत्ती तस्य भवं पत्थि संसारे ॥७४५॥ (मूलाराधना) अर्थ-संसारभय से उत्पन्न हुई, मिथ्यात्व-माया-निदान से रहित, मेरु पर्वतके समान निश्चल ऐसी जिनभक्ति जिसके अंतःकरण में है उस पुरुष को संसार में भव धारण नहीं करने पड़ते अर्थात् उसका संसार नष्ट होकर उसे मुक्ति-लाभ होता है। तह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधुसु । . भत्ती होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिव्वा ॥७४७।। विज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य। किह पुण विव्वुदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स ॥७४८॥ अर्थ-सिद्ध परमेष्ठी, उनकी प्रतिमा, आगम, प्राचार्य, सर्वसाधु, इनमें की हुई तीव्र भक्ति संसार का नाश करने में समर्थ होती है, जो भक्तिमान् है उसको इष्ट पदार्थ अर्थात् मोक्ष मिलता है और जो सिद्धादि की भक्ति नहीं करता उसको मुक्ति बीज अर्थात् रत्नत्रय प्राप्त नहीं होता। ___ 'चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रतिबिबानि कृत्रिमाकृतिमाणि तेषु भक्ताः। यथा शत्रूणां मित्राणां वा प्रतिकृतिदर्शनाद् द्वषो रागश्च जायते । यदि नाम उपकारोऽनुपकारो वा न कृतस्तया प्रतिकृत्या तत्कृतापकारस्योपकारस्य वा अनुस्मरणे निमित्तताऽस्ति तद्वज्जिनसिद्धगुणाः अनन्तज्ञानदर्शन-सम्यक्त्व-वीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न संति, तथापि तद्गुणानुस्मरणं संपादयन्ति, सादृश्यात्तच्च गुणानुस्मरण अनुरागात्मकं ज्ञानदर्शने सन्निधापयति । ते च संवरनिर्जरे महत्यौ संपादयतः । तस्माच्चैत्यभक्तिमुपयोगिनी कुरुत ।' (मूलाराधना गाथा ३०० टीका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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